जेएनयू में जो कुछ बीते दिनों घटित हुआ उससे सारा देश नाराज है, देश के दुश्मन बचने नहीं चाहिए : आर के सिन्हा
आर के सिन्हा I जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी (जेएनयू) से हाल के दौर में किसी अध्यापक या विद्यार्थी के मौलिक काम पर बात होती नहीं सुनाई देती। हाल के दौर में जे0 एन0 यू0 से सिर्फ नेगिटिव खबरें ही सामने आ रही हैं। जेएनयू बिरादरी संसद पर हमले के गुनहगार अफजल गुरु की बरसी मनाती है। पर क्या इन्होंने कभी उस हमले में शहीद हुए जवानों को भी याद किया?
अफजल गुरू के समर्थक और विरोधी दोनों मुखर हो गए हैं। घटना दिल्ली में घटित हुई है, परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त लोगो की सार्वजनिक भत्र्सना और सामाजिक बहिश्कार की जगह इस घटना पर राजनीति हो रही है। पाकिस्तान में आतंकवादी हाफिज सईद, और दिल्ली में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरबिन्द केजरीवाल और सी0पी0आई0 के नेता डी0 राजा सबके सब एक ही स्वर में बोल रहे हैं।
जेएनयू में अफजल गुरु की बरसी को आयोजित करने में वामपंथी संगठन और कश्मीर के छात्र काफी सक्रिय थे। बाकायदा इसके लिए कैंपस में एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। इस दौरान कैंपस में देश विरोधी नारे लगाए गए। ‘‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’’ ‘‘कष्मीर को आजाद करके रहेंगे’’ और देश के टुकड़े करके रहेंगे जैसे देशद्रोही नारे लगाये गये।
सभी को याद रखना चाहिए कि देश का संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देश विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं देता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी अपनी हदें हैं। उसका उल्लंघन करना किसी भी परिस्थिति में जायज नहीं माना जा सकता।
एक हैरानी की बात ये भी है कि राष्ट्र विरोधी नारे सिर्फ जेएनयू में ही नहीं लगे। देश विरोधी नारे संसद भवन के लगभग एक फलांग दूरी पर स्थित दिल्ली के प्रेस क्लब में भी लगे। इन देशद्रोही नारेबाजियों को कैसे स्वीकार करेगा देश। 10 फरवरी को दिल्ली के प्रेस क्लब में आतंकी अफजल गुरु की बरसी के मौके पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। यहां पर भी देशविरोधी नारे लगाए गए। इधर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ प्रोफेसरों ने पार्टी में ही ‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद’’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। इन लोगों ने ‘‘अफजल गुरु जिंदाबाद’’, ‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद’’ और भारत के खिलाफ जमकर नारे लगाए। इस मामले में भी दिल्ली के संसद मार्ग पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करवाई गई है। ये केस संसद हमला मामले में बरी हुए एसएआर गिलानी समेत अन्य लोगों के खिलाफ दर्ज किया गया है। गिलानी इस इवेंट के आयोजक थे। पुलिस का कहना है कि जिन लोगों ने देश विरोधी नारे लगाए हैं उनको बख्शा नहीं जाएगा। पुलिस डीयू के प्रोफेसर अली जावेद से भी पूछताछ करने वाली है।
जेएनयू में फिर वापस लौटते हैं। उधर राष्ट्र विरोधी हरकतें पहले भी होती रही हैं। अफजल गुरु की फांसी के वक्त भी यहां बवाल हुआ था। जेएनयू ने देश को बड़े-बड़े बुद्धिजीवी दिए हैं। दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारधारा के बीच यहां हमेशा से बौद्धिक टकराव होते रहे हैं। लेकिन, अब जिस तरह से देश विरोधी गतिविधियां यहां पनप रही हैं उससे जेएनयू की छवि खराब हुई है। कश्मीर पर भारतीय संसद ध्वनिमत से प्रस्ताव पारित कर चुकी है कि देश पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से को भारत से जोड़ेगा। इसके बावजूद जेएनयू में कश्मीर पर देश की राय से हटकर एक राय सामने आती रही है। ये तो गंभीर मसला है। इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है।
अफजल की फांसी की सजा पर दायर दया याचिका को सुप्रीम कोर्ट और फिर राष्ट्रपति ने खारिज किया था। इसके बावजूद उसकी जेएनयू में बरसी मानने का मतलब क्या है। और वहां पर तो ‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद’’ और घोर भारत विरोधी नारे भी लगे। अब आखिरकार इन तत्वों को पाकिस्तान की गुणगान के लिए कौन उकसा रहा है?
कौन दे रहा है इन्हें आर्थिक मदद? यह हो कैसे रहा है? कौन करवा रहा है ये सब राष्ट्रद्रोही गतिविधिया, इसकी भी जांच होनी जरूरी है। सवाल यह उठता है कि जेएनयू प्रशासन देश विरोधी तत्वों पर लगाम क्यों नहीं लगाता? उसे पाकिस्तान परस्तों पर कठोर कारवाई तो करनी ही चाहिए। कश्मीर पर चर्चा या अफजल की फांसी का ‘‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’’ से कोई लेना देना कैसे हो सकता है।
एक ओर देश का जाबांज हनुमंतथप्पा जिंदगी जीने की जद्दोजहद से जूझ रहा था, दूसरी तरफ उसके अस्पताल से कुछ दूर जेएनयू में वतन को गालियां देने वाले सक्रिय थे।
एक बात समझ लेनी चाहिए हमारे देश में तो लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद ही अफजल गुरु से लेकर याकूब जैसे देशद्रोहियों को फांसी हुई। दूसरे देशो में तो इन्हें सीधे गोली मार दी जाती या सिर कलम कर दिया जाता। फिर भी इन्हें महिमा मंडित क्यों किया जा रहा है?
आपको याद होगा कि मेमन को फांसी हो या नहीं हो, इस सवाल पर वास्तव में देश को कुछ मुट्टीभर लोगों ने बांटने की कोषिष करने में कुछ भी नहीं उठा रखा था। देश के जाने-माने लोगों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर याकूब मेमन को फांसी की सजा से बचाने की अपील की थी। इनमें सीपीएम के सीताराम येचुरी, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर, सीपीआई के डी राजा, वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी, फिल्मकार महेश भट्ट, अभिनेता नसीरूद्दीन शाह, अरुणा रॉय समेत जैसे कई क्षेत्रों और राजनैतिक दलों के लोग शामिल थे। हालांकि, ये बात समझ से परे है कि मेमन के लिए तो इन खासमखास लोगों के मन में सहानुभूति का भाव पैदा हो गया था, पर इन्होंने कभी उन तमाम सैकड़ों निर्दोश लोगों के बारे में बात नहीं की जो बेवजह मारे गए थे मुंबई बम धमाके में। उनका क्या कसूर था? इस सवाल का जवाब इन कथित खास लोगों के पास शायद नहीं होगा। जेएनयू बिरादरी ने भी शायद ही कभी धमाकों में मारे गए लोगों को याद तक किया होगा। पंजाब में आतंकवाद के दौर को जिन लोगों ने करीब से देखा है, उन्हें याद होगा कि तब भी स्वयंभू मानवाधिकार वादी बिरादरी पुलिस वालों के मारे जाने पर तो शांत रहती थी, पर मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकियों को लेकर स्यापा करने से पीछे नहीं रहती थी। इनको कभी पीडि़तों के अधिकार नहीं दिखे। इन्हे मारने वाला हमेशा ही अपना ही लगा। उसके मानवाधिकार और जनवादी अधिकारों पर ये आंसू बहाते रहे।
इसी तरह से जब छतीसगढ़ में नक्सलियों की गोलियों से छलनी कांग्रेस के शिखर नेताओं की जघन्य हत्या से सारा देश सन्न था, तब भी मानवाधिकारवादियों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न आना बहुत सारे सवाल छोड़ गया था। हमारे मानवाधिकारवादी आम नागरिकों के मानवाधिकारों के हनन पर तो खामोश हो जाते हैं, पर अपराधियों के मानवाधिकारों को लेकर वे बहुत जोर-शोर से आवाज बुलंद करते हैं। अरुंधति राय से लेकर महाश्वेता देवी और तमाम किस्मों के स्वघोषित बुद्धिजीवी और स्वघोषित मानवाधिकार आंदोलनकारियों के लिए अफजल गुरु से लेकर अजमल कसाब के मानवाधिकार हो सकते हैं, पर नक्सलियों की गोलियों से छलनी छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेताओं के मानवाधिकारों का कोई मतलब नहीं है।
निश्चित रूप से भारत जैसे देश में हरेक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का दाचित्व है। कहने की जरूरत नहीं है कि व्यक्ति चाहे अपराधी ही क्यों न हो, जीवित रहने का अधिकार उसे भी है, यही मानवाधिकारों का मूल सिद्धांत है। जो अधिकार अपराधियों के प्रति भी संवेदना दिखाने के हिमायती हों, वह आम नागरिकों के सम्मान और जीवन के तो रक्षक होंगे ही, पर कभी-कभी लगता है कि इस देश के पेशेवर मानवाधिकारों के रक्षक सिर्फ अपराधियों के प्रति ही संवेदनशील हैं, नागरिकों के प्रति नहीं।
आतंकवादियों के हमलों के कई मर्तबा शिकार हो चुके मनिंदर सिंह बिट्टा सही कहते हैं कि क्या सिर्फ मारने वाले का ही मानवाधिकार है मरने वाले का कोई अधिकार नहीं है?
याद नहीं आता कि आंध्र प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक में जो नक्सलियों ने नरसंहार किए, उन पर कभी दो आंसू मानवाधिकारवादियों या जेएनयू बिरादरी ने बहाए।
यहां मुझे सुप्रीम कोर्ट के एक जज पसाइत साहब का वह सार्वजनिक भाषण याद आता है कि ‘‘जो व्यक्ति या समूह मानवीय संवेदनाओं का कद्र नहीं करते और निर्दोशों को बेरहमी से भुन देते हैं वे मनुश्य होने का अधिकार खो चुके हैं और जो जानवरों के जैसा व्यवहार करते हैं उनका ‘‘मानवाधिकार कैसा?’’
कुछ साल पहले झारखंड के लातेहार में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के कुछ जवानों के शरीर में विस्फोटक लगाकर उड़ा दिया था। इस तरह की मौत पहले कभी नहीं सुनी थी। पर मजाल है कि महाश्वेता देवी, अरुंधती राय या बाकी किसी किसी मानवाधिकारवादी या जेएनयू बिरादरी ने उस कृत्य की निंदा की हो।
क्या इन जवानों के माता-पिता, पत्नी या बच्चे नहीं थे ?
क्या इनके कोई मानवाधिकार नहीं थे ?
जेएनयू में जो कुछ बीते दिनों घटित हुआ उससे सारा देश नाराज है। देश के दुश्मन बचने नहीं चाहिए। पर किसी बेगुनाह पर कोई एक्शन नहीं होना चाहिए।
अंत में एक बात और। राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलग्न होना एक संगीन अपराध है जिसकी सजा उम्र कैद तक हो सकती है। भारतीय दंड विधान (आइ0पी0सी0) और दंड प्रक्रिया कोड (सी0आर0पी0सी0) के अन्तर्गत किसी भी अपराध का खुलेआम समर्थन करना भी उतना ही बड़ा अपराध है।
मेरा सवाल यह है कि देशद्रोहियों के बचाव में जो जो राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी मुखर समर्थन कर रहे हैं,
क्या उनके ऊपर राष्ट्रद्रोही गतिविधियों के समर्थन के अपराध का दोषी नहीं माना जाय?
क्या उनपर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जाए?
आर के सिन्हा राज्यसभा सांसद हैं