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शक्ति (बुलडोजर)से अतिक्रमण हटाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय पर सच यही हैं सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के सांविधानिक अधिकारों की रक्षा तो करना चाहता है परंतु त्वरित न्याय का कोई तंत्र विकसित नहीं कर पाता है

राजेश बैरागी । क्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बुलडोजर के दम पर कथित अतिक्रमण को हटाने के विरुद्ध दिए गए निर्णय का तेजी से विकसित हो रहे नोएडा ग्रेटर नोएडा सरीखे विशेष औद्योगिक आर्थिक क्षेत्रों में विपरीत प्रभाव पड़ सकता है? ऐसे क्षेत्रों में चतुर और राजनीतिक पहुंच वाले लोग सुनियोजित विकास के लिए अधिसूचित तथा अधिग्रहित भूमि पर अवैध कब्जा कर लेते हैं। ऐसे लोगों के विरुद्ध निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अन्तर्गत कब्जा हटाने की कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाना अब आसान नहीं होगा जबकि देश की अदालतों में मुकदमों के निस्तारण की गति कछुए से भी सुस्त है और उनमें भ्रष्टाचार गहराई तक व्याप्त है।

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि अदालतें भी देश की नागरिक हैं और उन्हें नागरिकों द्वारा किए जाने वाले आम क्रियाकलापों से परिचित होना ही चाहिए। जनपद गौतमबुद्धनगर की अदालतों की बात करें तो एक न्यायिक अधिकारी की भावना इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाती है कि सिविल अदालत को प्रतिदिन के हिसाब से चार पांच स्थगन आदेश तो देने ही चाहिएं। यहां बताने की आवश्यकता नहीं है कि अदालतें अधिकांश मामलों में स्थगन आदेश देती नहीं हैं, स्थगन आदेश लिए जाते हैं। ऐसे स्थगन आदेशों को खारिज कराना सरल नहीं होता है। सरकारी भूमि पर अतिक्रमण या अवैध कब्जा करने वाले लोग किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करते। उनकी दबंगई और ऊंची पहुंच ही कानून है। ऐसे लोगों से सरकार या प्रशासन कैसे मुकाबला कर सकता है?

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एक तरीका तो बुलडोजर का ही है। सर्वोच्च न्यायालय ने बहराइच के एक पत्रकार का घर तोड़ने के मामले में उत्तरप्रदेश सरकार को खूब खरी-खोटी सुनाई है। इस मामले में पीड़ित को 25 लाख रुपए का अंतरिम मुआवजा देने तथा तोड़फोड़ का आदेश देने वाले अधिकारियों को दंडित करने का भी आदेश दिया गया है। कतिपय मामलों में सरकार और उसके अधिकारियों की साज़िश तथा प्रतिशोध की भावना हो सकती है। इसमें भी दो राय नहीं है कि कर्तव्य के प्रति लापरवाही, योजनागत तैयारियों में कमी तथा भूमाफियाओं के साथ प्रशासन के अधिकारियों की सांठगांठ से देशभर में अवैध कब्जों के मामले जन्म लेते हैं। परंतु यदि संबंधित सरकारी विभाग किसी अवैध कब्जे को लेकर दृढ़ मत है तो लंबी कानूनी प्रक्रिया की क्या आवश्यकता है? क्या इसमें भी अनुच्छेद
300 ए के तहत मिले संपत्ति के संविधानिक अधिकार की बाधा आड़े आती है?

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के जिन सांविधानिक अधिकारों की रक्षा करना चाहता है परंतु त्वरित न्याय का कोई तंत्र विकसित नहीं कर पाता है और सरकारें जिस प्रकार की प्रतिशोधी कार्रवाइयों के लिए कुख्यात हैं,इन दोनों के बीच क्या बुलडोजर को बेअसर कर दिया जाना चाहिए? यह प्रश्न नोएडा ग्रेटर नोएडा, यमुना एक्सप्रेस-वे जैसे तेजी से विकसित हो रहे क्षेत्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जहां एक तिहाई भूमि अतिक्रमणकारियों और अवैध कब्जा करने वाले लोगों के पंजों में फंसी हुई है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय आने वाले समय में इन क्षेत्रों पर दूरगामी प्रभाव डालेगा जब विकास प्राधिकरण अपनी अधिसूचित और अधिग्रहित भूमि को वापस पाने के लिए अदालतों में मुकदमों का खेल खेल रहे होंगे।

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राजेश बैरागी

राजेश बैरागी बीते ३५ वर्षो से क्षेत्रीय पत्रकारिता में अपना विशिस्थ स्थान बनाये हुए है l जन समावेश से करियर शुरू करके पंजाब केसरी और हिंदुस्तान तक सेवाए देने के बाद नेक दृष्टि हिंदी साप्ताहिक नौएडा के संपादक और सञ्चालन कर्ता है l वर्तमान में एनसीआर खबर के साथ सलाहकार संपादक के तोर पर जुड़े है l सामायिक विषयों पर उनकी तीखी मगर सधी हुई बेबाक प्रतिक्रिया के लिए आप एनसीआर खबर से जुड़े रहे l

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