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राग बैरागी : दिल्ली की सियासत में जलभराव और सत्ता के अन्त:पुर की साजिश

राजेश बैरागी। संविधान कहता है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल और उपराज्यपाल केवल अपनी सरकार के प्रशस्ति पत्र को ही पढ़ सकते हैं। अपनी सरकार के कार्यों से संतुष्ट न रहने पर उसे बर्खास्त करने या बर्खास्त करने की अनुशंसा कर सकते हैं। तो क्या परंपराएं टूट रही हैं? बीते कल दिल्ली के उपराज्यपाल ने दिल्ली में जलभराव के लिए अपनी ही सरकार को कोसा।

इसके साथ ही उन्होंने शीघ्र ही दिल्ली के नालों की सफाई कराने तथा जलभराव की समस्या का समाधान करने की बात कही। क्या उपराज्यपाल के पास अपना कोई निजी तंत्र है जिससे वे दिल्ली के नालों की सफाई कराएंगे? मुझे नहीं लगता कि उपराज्यपाल के पास अपनी सरकार से इतर कोई तंत्र है। तो क्या उपराज्यपाल को अपनी ही सरकार को बदनाम करने का संवैधानिक अधिकार है?

मुझे लगता है कि यह भी नहीं है। दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच चल रहे शीतयुद्ध का कोई अंत नहीं है। इस पद पर बैठने वाले नजीब जंग, अनिल बैजल, और अब विनय कुमार सक्सेना ने बतौर उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के संवैधानिक मुखिया के तौर पर कम और केंद्र सरकार के एजेंट के तौर पर ही अधिक काम किया है। अपने सेवायोजक के प्रति सत्यनिष्ठ रहना कोई बुरी बात नहीं है। वैसे भी राज्यपाल और उपराज्यपाल के नियुक्ति पत्र में लिखा होता है कि उन्हें पांच वर्ष अथवा राष्ट्रपति के प्रसादांत तक के लिए नियुक्त किया जाता है। यह प्रसादांत दरअसल नियोक्ता के प्रति वफादारी की शर्त का नाम है। तो संविधान में वर्णित राज्यपाल और उपराज्यपाल के अधिकारों तथा कर्तव्यों का क्या अर्थ है? यह बात समझने के लिए राजभवन और राष्ट्रपति भवन जाना उचित नहीं होगा। इसके लिए सत्ता के अन्त:पुर की साजिशों को समझना अनिवार्य है। दिल्ली के उपराज्यपाल वही कर रहे हैं।(

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