राजेश बैरागी । माना जाता है कि विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली भाजपा में अंधभक्तों की संख्या ही अधिक है। भाजपा और आरएसएस से जुड़े लोग अपने नेताओं द्वारा चलाए जाने वाले अनर्गल अभियानों पर आंख मूंदकर विश्वास करते हैं और उसके समर्थन में सामने वाले से लडने को भी तैयार हो जाते हैं।अंधभक्ति का पुख्ता प्रमाण यही होता है जब स्वयं की विचार शून्यता उस स्तर तक पहुंच जाए जहां समक्ष तर्क-वितर्क और सत्यता से चिढ़न होने लगे।
क्या यह विकार केवल भाजपा कार्यकर्ताओं में ही है?गत 28 अगस्त को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर की एक ज्वैलरी शॉप में हुई डकैती के कथित आरोपी मंगेश यादव को पुलिस द्वारा कथित मुठभेड़ में मार देने को लेकर समाजवादी पार्टी द्वारा चलाए जा रहे विरोधी अभियान को सपा कार्यकर्ताओं का समर्थन भी क्या अंधभक्ति नहीं है?पूरी बात समझने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा सोशल मीडिया पर ‘भाजपा राज में एनकाउंटर का एक पैटर्न सेट हो गया है’ शीर्षक से जारी किए गए एक पोस्टर पर विचार करना आवश्यक है।
इस पोस्टर को सपाईयों द्वारा अंधभक्त जैसा ही समर्थन किया जा रहा है। इस पोस्टर में पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को उठाकर फर्जी मुठभेड़ में मारने और उसे वास्तविक मुठभेड़ साबित करने के लिए कहानियां गढ़ने का वर्णन किया गया है।यह पोस्टर मंगेश मुठभेड़ कांड को फर्जी सिद्ध करने के लिए समाजवादी पार्टी द्वारा चलाए जा रहे अभियान का हिस्सा है।
इस पोस्टर को पार्टी पदाधिकारी अपने अपने सोशल मीडिया एकाउंट से अपने समर्थकों के बीच प्रसारित कर रहे हैं। समर्थक इस पोस्ट पर सकारात्मक और भाजपा के विरुद्ध आक्रामक प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इससे क्या हासिल? क्या इस पोस्टर में लिखे कि ‘भाजपा राज में एनकाउंटर का एक पैटर्न सेट हो गया है’ सच बात है?1862 से लागू हुई भारतीय दंड संहिता की धारा 96 के तहत प्रत्येक मनुष्य को निजी रक्षा का अधिकार है जो कि एक प्राकृतिक और एक अंतर्निहित अधिकार है। एनकाउंटर शब्द की उत्पत्ति स्वयं पुलिसिया शब्दकोष से हुई है।1862 से अब तक पुलिस इसी धारा की आड़ में अनगिनत अपराधियों को मौत के घाट उतारती आई है। आमने-सामने की मुठभेड़ का परिणाम कुछ भी हो सकता है। परंतु योजनाबद्ध या साजिशन किसी व्यक्ति को उठाकर कथित मुठभेड़ करने से केवल एक ही परिणाम निकलना निश्चित होता है।
नोएडा में नियुक्त रहे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी निजी बातचीत में अपराधियों को ऐसी मुठभेड़ में मार डालने की पुरजोर हिमायत करते थे। दुर्दांत आतंकवादियों, समाज के लिए समस्या बन जाने वाले अपराधियों को समय और स्थान तय कर उनसे मुठभेड़ करना क्या संभव है? ऐसे ही उनको न्यायिक व्यवस्था में सजा दिलाना भी संभव नहीं है। तो क्या फर्जी मुठभेड़ का औचित्य सिद्ध हो जाता है? फर्जी मुठभेड़ का समर्थन करना कानून के शासन में अविश्वास के साथ अराजकता को जन्म दे सकता है। परंतु यहां प्रश्न पुलिस मुठभेड़ को उचित अनुचित ठहराने का है ही नहीं।
सपा प्रमुख के पोस्टर से स्पष्ट है कि भाजपा सरकार ने मुठभेड़ का एक पैटर्न सेट कर लिया है।1862 या उससे भी पहले से चली आ रही पुलिस मुठभेड़ की कहानी में क्या कभी अल्पविराम भी आया है। अखिलेश यादव स्वयं और उनके पिता स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। क्या अखिलेश यादव श्रीकृष्ण के मुख से निकली गीता पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनके कार्यकाल में इसी पुलिस द्वारा मुठभेड़ के इसी पैटर्न का इस्तेमाल नहीं किया गया था। क्या उनके कार्यकाल में सभी मुठभेड़ के मामले पुलिस और अपराधियों के बीच आमने-सामने के मुकाबले के हैं? दरअसल यह किसी सरकार का नहीं पुलिस का पैटर्न है। पुलिस किसी भी सरकार का उद्दंड किंतु इकलौता बेटा होती है। उसके किए गए अच्छे और बुरे सभी कार्यों के लिए तत्कालीन सरकार ही जिम्मेदार होती है। समाजवादियों को यही समझने की आवश्यकता है।