क्या मीडिया के तौर पर पत्रकारों, बुद्धिजीवियों का आम जनता से सहमत होना आवश्यक है , संभवत नही । आम तौर पर देश में चल रहे घटनाक्रमों पर लोगो के विचार उनकी विचारधारा या फिर आजकल सोशल मीडिया पर आने वाले वीडियो और व्हाट्स एप संदेशों से बनती है । कई बार ये सकारात्मक भी होती है तो कई बार नकारात्मक भी । चर्चाओं के सकारात्मक या नकारात्मक होना जरूरी भी है क्योंकि दोनो ही परिस्थियो में कुछ नए विचार जन्म लेते है । किंतु जब असहमति को लोग गोदी मीडिया का नाम दे देते है तो लगता है कि भारत में जन समूह अब अपनी सोच के विपरीत नही सुनना चाहता है ।
कल ऐसे ही एक मित्र समूह में चर्चा चल रही थी । चर्चा में तर्क से सहमत नही समूह से एक मित्र ने स्वाभिक भाव में अचानक कहा कि तब तो आप गोदी मीडिया हुए । तर्क वितर्क के बीच तर्क से अलग वयक्तिगत आक्षेप से चर्चा समाप्त हो गई और फिर हमने विदा ली ।
किंतु यह सब से एक नया विचार खड़ा हो गया कि क्या किसी भी विषय पर जनसमूह की आकांक्षा के अनुरूप बात न करने पर आप किसी एक खास खांचे में फिट कर दिए जाते हैं ।
इन दिनों असहमति आपको विरोधी समूह का पक्ष कर बना देती है। वस्तुत भारत विभिन्न संस्कृतियों के बावजूद समावेशी विचार से रहने वाला देश है , जिसमे थोड़ा हां थोड़ा ना दोनो की स्वकृति होती रही है । किंतु इन दिनों जिस तरीके से असहमति के कारण लोगों की गर्दन काट देने के कट्टरपंथी विचार जन्म लेने लगे हैं उसके बाद देश में विचार और चर्चा के दौर समाप्त होने लगे है।
हाल ही में फिल्मकार कंगना रानाउत की एक फिल्म इमरजेंसी पर सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेट देने के बाद उपजे विवाद से डर कर एक बार फिर से सर्टिफिकेशन वापस ले लिया और फिल्म के रिलीज डेट टल गई क्योंकि फिल्म में दिखाए गए उसे सच से कुछ सिख सहमत नहीं है। आरोप है कि फिल्म में भिंडरा वाले को आतंकी कहा गया है या फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्या करने वाले गार्डों को सिख दिखाया गया है जो की ऐतिहासिक तौर पर सत्य भी है। किंतु झूठ से इमेज बिल्डिंग के इस दौर में कट्टरपंथियों से असहमति अब आपको गोदी मीडिया बना सकती है ।