क्या 1975 में लोकतंत्र की हत्या कर आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी की कांग्रेस आज भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास नहीं करती है ? क्या सत्ता पक्ष के नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तानाशाही और हिटलर जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाली कांग्रेस के पदाधिकारी स्वयं हिटलर और तानाशाही के पर्यायवाची बनते जा रहे हैं ? क्या देश में आम आदमी तो छोड़िए अब पत्रकारों से लेकर सभी संवैधानिक संस्थाओं पर कांग्रेस के हमले इसके पतन की भूमिका लिख रहे हैं ?
संपादकीय में अक्सर ऐसी बातों को नहीं लिखने की परंपरा रही है किंतु बीते दिनों कोई कुछ घटनाओं से इस पर चर्चा करना आवश्यक है देश के एक बड़े चैनल के पत्रकार ने अमेरिका गए राहुल गांधी की कवरेज के दौरान यह आरोप लगाया है कि कांग्रेस के ही एक अन्य विवादित नेता सैम पित्रोदा के एक इंटरव्यू में बांग्लादेश से संबंधित कुछ प्रश्न पूछने के बाद वहां के कांग्रेस पदाधिकारी ने न सिर्फ उस पत्रकार को बंद कमरे में मारा पीटा बल्कि उसके फोन से वह वीडियो भी डिलीट कराया।
कांग्रेस की एक प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत के टीवी और सोशल मीडिया पर सौम्य भाषा में बात करने की जगह हमेशा तनातनी दिखाने की भूमिका से हम सब परिचित हैं। इन्हीं सुप्रिया श्रीनेत के ट्विटर पर गौतम बुद्ध नगर डीएम कार्यालय में काम करने वाले एक व्यक्ति ने गलती से डीएम के ट्विटर हैंडल से कुछ लिख दिया उसके बाद कांग्रेसियों ने जिस तरीके से आक्रोशित होकर डीएम कार्यालय पर प्रदर्शन किया और हंगामा किया उस देश में गिरती राजनीतिक व्यवस्था पर चिंता करने का समय आ गया है ।
चर्चा इस बात की भी होनी चाहिए कि आखिर 10 साल की हताशा के बाद कांग्रेस के पदाधिकारी अब जनता, कर्मचारियों और पत्रकारों पर अपना गुस्सा क्यों निकलने लगे है । कभी स्वयं पत्रकार रही सुप्रिया समेत अक्सर पत्रकारों, साथी राजेंताओ के ऊपर ही आक्रामकता के साथ तमाम आरोप लगाती नजर आती हैं। ऐसे में क्या कांग्रेस के नेताओं की कोई विशेष ट्रेनिंग लोगों को आक्रामक होकर शाब्दिक और शारीरिक हमले करने की कराई गई है या फिर यह बीते 10 साल से बाहर रहने की हताशा है।और अगर कांग्रेस के नेता कार्यकर्ताओं और प्रवक्ताओं को इस लेवल तक लड़ने की ट्रेनिंग दे दी गई है तो इसके आगे शाब्दिक तौर पर राहुल गांधी के शब्दों में “मोहब्बत की दुकान” चलाने वाली कांग्रेस कहां तक जाएगी ।
क्या कांग्रेस अब स्वयं यह मानने लगी है कि इस देश में लोकतांत्रिक मूल्य और संविधान बेमानी हो गए हैं राजनेताओं से कानून को मानने का दिखावा करने की अपेक्षा हमेशा से की जाती रही। है तो क्या कांग्रेस इसको भूल गई है या फिर 1975 में आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस का असली चरित्र यही है जो देश भर में एक दशक से सत्ता से बाहर होने के बाद सोशल मीडिया के दौर में खुलकर सामने आने लगा है ।
महज एक दशक पहले तक की राजनीति को अगर आप देखे तो राजनेता अक्सर जनता द्वारा की जाने वाली आलोचनाओं और अभद्र व्यवहार को भी जनता का प्रसाद मानकर छोड़ देते थे अटल बिहारी वाजपेई से लेकर राजेश पायलट तक कई नेताओं ने कई बार लोगों के दुर्व्यवहार के लिए बावजूद उन्हें क्षमा किया । क्योंकि वह जानते थे की जनता ही लोकतंत्र में सर्वोपरि है और उसकी नाराजगी से सत्ताएं बदल जाती है किंतु ऐसा लगता है की वर्तमान में कांग्रेस के रणनीतिकार या तो यह भूल गए हैं या फिर यह मान बैठे हैं कि उनके प्रोपेगेंडा वार से जनता ऐसी बातों को भूल जाएगी। यह प्रश्न अब जनता के साथ साथ कांग्रेस ही सोचे तो बेहतर है ।