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राग बैरागी: जनपद गौतमबुद्धनगर में किसानों के आंदोलन की दुकान फीकी पड़ने पर होगा दिल्ली कूच

राजेश बैरागी । जनपद गौतमबुद्धनगर में किसानों की भलाई के नाम पर बने कितने संगठन सक्रिय हैं? क्या आप यह भी बता सकते हैं कि ऐसे संगठनों के मुद्दों में क्या अंतर है? एक ही प्रकार के मुद्दों को अलग-अलग मंच सजाकर उठाने का क्या उद्देश्य हो सकता है?जब भी प्राधिकरणों और जिला मुख्यालय पर एक के बाद दूसरे तथाकथित किसान संगठनों को धरना प्रदर्शन करते देखा जाता है तो हिंदी फीचर फिल्म ‘इंडियन’ का वह दृश्य आंखों में सजीव हो उठता है जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार से मुंबई में नेतागिरी करने आए दो नेता पुलिस अधिकारी बने सनी देओल से मिलने आते हैं। फिल्म के उस भाग को याद दिलाने की यहां आवश्यकता नहीं है जिसमें सनी देओल दोनों नेताओं की अच्छी तरीके से धुलाई कर उन्हें ससम्मान विदा करता है।उस दृश्य का खास हिस्सा वह है जिसमें दोनों नेता मुंबई में आकर नेतागिरी करने के अपने उद्देश्य को पूरी बेशर्मी से सामने रखते हैं।

जनपद गौतमबुद्धनगर में किसानों की भलाई के लिए पैदा हुए तथाकथित किसान संगठनों की संख्या चार दर्जन तक पहुंच गई है। एक किसान नेता ने ही निजी बातचीत में यह रहस्योद्घाटन किया है। इनमें से आधे से अधिक तो टिकैत के नाम पर चल रहे हैं। इनके लिए टिकैत का महत्व वही है जो समाजवादियों के लिए लोहिया का है। किसी बड़े व्यक्तित्व का नाम छुटभैये लोगों को सदियों तक संरक्षण दे सकता है। इन सभी संगठनों के मुद्दे और धंधे जनपद में कार्यरत प्राधिकरणों नोएडा ग्रेटर नोएडा और यीडा से संबंधित हैं।ये संगठन प्राधिकरणों द्वारा अधिग्रहीत अथवा सीधे खरीदी गई जमीनों से संबंधित किसानों के मुद्दों को लेकर प्राधिकरणों पर धरना प्रदर्शन करते रहते हैं।इन संगठनों के अमूमन सभी पदाधिकारी वैध अवैध प्रोपर्टी के धंधों में लिप्त हैं जो संगठन की आड़ में चोखा चलता है।

प्राधिकरणों के साथ साथ ये संगठन अक्सर जिला प्रशासन और पुलिस के समक्ष भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं ताकि धंधा करने में कहीं से भी व्यवधान उत्पन्न न हो। प्रश्न यह है कि एक समान मुद्दों पर अनेक संगठनों की क्या आवश्यकता है? दरअसल आर्थिक गतिविधियां बढ़ने और महंगी होती जमीनों ने इतने संगठनों को जन्म दिया है। अधिकाधिक धन संपत्ति प्राप्त करने की चाह रखने वाले चतुर लोग अपनी पहचान हासिल करने के लिए संगठन खड़े करते जा रहे हैं। इनमें एक दूसरे से आगे निकलने और पहचान बरकरार रखने का संघर्ष भी चलता रहता है। दुकान फीकी पड़ने के भय से एक से अधिक प्राधिकरणों पर धरना प्रदर्शन करना और दिल्ली कूच की घोषणा भी इसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा के ही प्रमाण हैं। हालांकि नौकरी करने आए अधिकारी इन संगठनों से उलझना नहीं चाहते हैं और उनके वैध अवैध कार्यों में या तो सहयोग करते हैं या आंखें मूंद लेते हैं।इन संगठनों की संख्या में वृद्धि का असल कारण यही है।हालांकि यह भी सच है कि अधिकारी हर नेता को उसकी क्षमता के हिसाब से ही खाने कमाने देते हैं।

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