आशु भटनागर । उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले गौतम बुद्ध नगर के औद्योगिक प्राधिकरणों (नोएडा, ग्रेटर नोएडा एवं यमुना प्राधिकरण) के कार्यालय के बाहर बीते कुछ वर्षों में किसानो की समस्याओं को लेकर आंदोलन इन दिनों आम बात हो गई है । भारी गर्मी, ठिठुरती सर्दी और बरसात के बाबजूद 100 दिनों का आंदोलन अब अब बेहद आम बात हो गई है । इन धरने प्रदर्शन आंदोलन में भीड़ जुटाना के लिए अक्सर भूमिहीनों को जमीन की मांग दशको पहले अधिग्रहीत भूमि का आज के दर से मुआवजे समेत कई अव्यवहारिक मांगों को भी आगे किया जाता है ।
किंतु असल में इन आंदोलन को करने वाले नेताओं पर अक्सर इन आंदोलनों की आड़ में अपने गैर कानूनी कामों को पुलिस प्रशासन और प्राधिकरण के अधिकारियों को दबाव में लेकर करवाने के आरोप भी अब खुलेआम लगने लगे है ।
हालत अब यहां तक आ पहुंचे हैं कि जिले में यह कहा जाने लगा है कि इस जिले में सत्तारूढ़ भाजपा के समक्ष विपक्ष भले ही जीरो हो किंतु 45 से ज्यादा किसान संगठन अलग-अलग समय अपनी-अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत रहते हैं ।
इसलिए इन्हें अब किसान आंदोलन की जगह अर्बन नक्सल के विशेषण से संबोधित किया जा रहा है । इसका एक बड़ा कारण बीते दिनों ग्रेटर नोएडा के में हुए लगभग डेढ़ सौ दिन तक चले आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के कई नेताओं का शामिल होना भी बताया जा रहा है स्वयं उस आंदोलन में किसान नेता के तौर पर प्रमुख आवाज बनकर उभरे किसान नेता डॉक्टर रुपेश कुमार वर्मा बाद में सीपीआई की जिला इकाई के जिला सचिव कामरेड डॉ रूपेश कुमार वर्मा बनते दिखाई दिए। ऐसा नहीं है कि यह एक ही मसला रहा हो उससे पहले नोएडा में सुखबीर खलीफा, सुरेंद्र चौहान, सुधीर चौहान जैसे तमाम नेताओं को लेकर भी तरह-तरह की चर्चाएं सामने आ रही हैं । चर्चाएं उनके विभिन्न पार्टियों के बैक डोर से सपोर्ट पर भी होती हैं और उनके उद्देश्य पर भी होते हैं।
साथ ही चर्चाएं अब आंदोलन रत किसान नेताओं के आंदोलन की मांगों को पूर्ण करने से ज्यादा आंदोलन में अव्यवहारिक मांगों को रखकर लंबा खींचने की हो रही है । रोचक तथ्य ये भी है कि इन आंदोलनों में इनका साथ भू माफिया, अवैध कॉलोनाइजर भी देते नजर आते हैं। कहा जा रहा है कि इन दोनों का कॉकटेल इस शहर की विकास यात्रा को भी बाधित करने लगा है तो प्राधिकरण, पुलिस और प्रशासन इनकी आप व्यावहारिक मांगों के आगे कई बार बेबस भी दिखाई दे रहा है ।
क्या है अर्बन नक्सल और इसकी गौतम बुद्ध नगर में क्यों है चर्चा
साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी में जमींदारों के खिलाफ हथियारबंद आंदोलन हुआ था ये आंदोलनकारी चीन के क्रांतिकारी नेता माओ की आइडियोलॉजी को मानते थे । इसमें राजनीति से जुड़े कुछ बड़े नाम भी शामिल थे। सबका इरादा एक था- जमींदारों से जमीन लेकर भूमिहीनों में बांट देना। चूंकि, आंदोलन नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ था इसलिए आंदोलनकारियों को ‘नक्सली’ भी कहा जाने लगा। बाद में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दमन हो गया, लेकिन कई कम्युनिस्टों ने उस आंदोलन में अपनी आस्था जताते हुए अलग-अलग समूहों का गठन किया।
“द कश्मीर फाइल्स” जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशक और लेखक विवेक अग्निहोत्री ने 2017 में अपनी किताब “अर्बन नक्सल” के विमोचन के समय शहरी क्षेत्र में सत्ता के खिलाफ अलग-अलग तरीके से संघर्ष को जारी रखने वाले लोगों को अर्बन नक्सल कहा था । इसके बाद 2018 में भीमा कोरेगांव दंगों के मामले में देश के अलग-अलग हिस्सों से वरवर राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, साइ बाबा जैसे कई बुद्धिजीवियों को हिरासत में लिया । किंतु इस देश के वामपंथी इकोसिस्टम ने इस पूरी टर्म को हवा हवाई बताया पर क्या यही सच था या इसमें कुछ सच है आइए समझते है ।
साल 2004 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के चर्चा में आये दस्तावेज अर्बन पर्सपेक्टिव नाम से इस डॉक्युमेंट में एक विशेष रणनीति का जिक्र है। जिसके अनुसार इसमें शहरी लीडरशिप में कोई मुहिम चलाई जाती है, जो सत्ता के विरोध में रहती है। ये पॉलिसी का विरोध भी हो सकता है, या किसी खास पार्टी या नेता का भी या फिर स्थानीय सरोकारों या भावनाओं से जुड़े किसी मुद्दे का होता है । इसके पीछे सोच ये है कि शहरी कनेक्शन होने की वजह से नेता काफी पढ़े-लिखे होंगे, और जरूरत पड़ने पर इंटरनेशनल स्तर पर जाकर भी अपने को सही साबित कर सकेंगे।
ऐसे में प्रश्न यह है कि अर्बन नक्सल की परिभाषा के बावजूद उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी नोएडा ग्रेटर नोएडा या यमुना में हो रहे किसान आंदोलन का इससे क्या संबंध है ? चर्चाएं हैं कि सीधा संबंध भले ही कुछ मामलों में स्थापित होता दिख रहा हो किंतु नक्सलवाद की परंपरा के अनुसार इस शहर में स्थानीय राजनेताओं का पराभाव और 45 से ज्यादा किसान नेताओं का उदय होना इसका प्रथम संकेत है।
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह किसान नेता अब प्राधिकरण के कर्मचारियों की मांगों के साथ यह कहकर खड़े होते दिखाई देते हैं कि यह काम करने वाले कर्मचारी भी कहीं न कहीं किसान और मजदूर है । प्राधिकरणों के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों में बढ़ती घुसपैठ का दुष्परिणाम भी एक सोचनीय विषय तो है साथ ही इन किसान नेताओं को लगने वाले आरोपो में कई बार यह आरोप भी लगे हैं कि प्राधिकरण ओर प्रशासन में अधिकारियों के साथ इनके जबरदस्त संबंध बन जाते हैं और आंदोलन की आड़ में कई सीईओ और डीएम ने यहां ऐसे लोगों को न सिर्फ बढ़ावा दिया है बल्कि उनके जरिए कई बेनामी संपत्तियों तक खड़ी कर ली है ।
शहर में प्राधिकरण के भ्रष्टाचार की चर्चाएं जब भी होती है तब यह बातें रह रहकर बाहर आ जाती है। शहर में चर्चा है कि एक पूर्व डीएम ने तो इन आंदोलन के दौरान अपने चहेतो की मांगे मनवाने के एवज में उनसे एक या दो प्लॉट हर बार ले लिए जिसके चलते कहा जाता है कि उनके शहर में 100 से ज्यादा प्लॉट है ।
ऐसी चर्चाओं को बल इस बात से भी मिलता है कि सेक्टर 104 में 5% के कोटे से मिले प्लॉट्स पर बाद में उत्तर प्रदेश सरकार और प्राधिकरणों में रहे अधिकारियों ने ही बड़े-बड़े रेस्टोरेंट, बार, मार्केट, होटल बनकर खड़े कर दिए । आज हालात यह है की सेक्टर 104 का यह मार्केट नोएडा का दिल कहे जाने वाले सेक्टर 18 की मार्केट को बड़ी टक्कर देता है ।
ऐसे में एक बार फिर मूल प्रश्न पर आते हैं कि क्या जिले में लगातार बढ़ते जा रहे हैं किसान आंदोलन का सच आम तौर पर दिखने वाली मांगों और खुद को शोषित दिखाने के उलट कुछ और है । लगातार मांगों को लेकर अधिकारियों को दबाव में लेने की राजनीति के पीछे तात्कालिक तौर पर भले ही कुछ लोगों को जमीन के फायदे दिखते हो किंतु आने वाले दौर में यहां वामपंथ और नक्सलवाद की नींव रखी जा रही है या जा चुकी है क्या आने वाले दिनों में बढ़ते दबाव के बीच मजदूर और किसान के नाम पर यहां बड़े संघर्ष होने की संभावना बढ़ गई है या फिर भविष्य एक करोड़ से ज्यादा लोगों के सपनों को पूरा करने के लिए बन रहे औद्योगिक धुरी में वामपंथ ने अर्बन नक्सल के तौर पर अपना खेल शुरू कर दिया है ।