आशु भटनागर । “शिक्षा शेरनी का दूध है जो पीएगा वो दहाड़ेगा” जैसी बात कहने वाले और देश में दलित राजनीति के सबसे बड़े प्रतीक बन चुके डा भीमराव अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि क्या होनी चाहिए ? क्या उनके नाम पर बड़े-बड़े आयोजन, रैलियाँ, उनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण या फिर उनकी शिक्षाओ के अनुसार अपने कार्यो में उतारना होना चाहिए ? क्या देश और प्रदेश की सरकारे डा अम्बेडकर के कद का राजनैतिक दोहन करने की जगह कभी इस देश के अमीर, गरीब, दबे कुचले हर बच्चे को एक सामान शिक्षा दिलाने का सपना पूरा कर पाएंगी ?
डा भीम राव अम्बेडकर की जयंती पर ऐसे बेसिर पैर के प्रश्नों का संभवत: पूछा जाना लेखक को दलित विरोधी या अम्बेडकर विरोधी साबित कर सकता है ।ये प्रश्न पूछे नहीं जाते अगर आज नोएडा का दिल कहे जाने वाले सेक्टर 18 में सुबह से बोनी (पहली दूकानदारी) के लिए तरस रहे १४ वर्षीय अरुण से मेरी मुलाकात नहीं होती I दोपहर 2 बजे की तपती धुप में नोएडा के सबसे बढ़े माल्स में से एक मॉल ऑफ इंडिया (DLF Mall of India) के गेट नो 9 के बाहर एक चाय की दूकान के पास हरदोई का रहने वाला अरुण वहां आते जाते लोगो से बूट पालिश करने की गुहार लगा रहा था I मगर मॉल से बाहर सिगरेट के कश मारने आये लोगो पर कहाँ इतनी फुर्सत थी I

मैंने धीरे से पूछा तो बोला सुबह से बोनी नहीं हुई है । चेहरे के परेशान अरुण को देखते हुए मैंने उसके परिवार और पढ़ाई के बारे पूछा तो उसने कहा कि वो 5 वी तक पढ़ा है और अब अपने 4 भाई बहनों की पढ़ाई के लिए सुबह से शाम तक ऐसे भटकता है । दिन भर में 100 रूपए से 150 रूपए तक कमाने वाले अरुण को देख कर सोशल मीडिया पर नेताओं द्वारा अम्बेडकर को श्रधांजलि के सन्देश बेमानी लगने लगे । सत्ता हो या विपक्ष सब झूटे लगने लगे ।
मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ इस बच्चे के लिए शिक्षा का अधिकार देने की ज़िम्मेदारी किसकी है ? अम्बेडकर जयंती पर उनके ही नाम से “गरीब और वंचित समाज को अगर प्रगति करनी है, तो इसका एकमात्र ज़रिया शिक्षा ही है” कह कर गरीबो से ताली बजवाने वाले नेताओं, अधिकारियों ने क्या कभी सोचा है कि ये बच्चे कैसे पढ़ेंगे ? कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी यानी सीएसआर (Corporate Social Responsibility) को अपने विज्ञापन का जरिया बनाने वाले निजी अस्पताल, निजी स्कूल, बिल्डर और बड़े-बड़े उद्योगपति आखिर कब इस देश में शिक्षा के महत्व अपनी जिम्मेदारी समझेंगे ?
मायूस अरुण की बोनी करा कर उसे विदा करते समय मैंने अपने मोबाइल पर व्हाट्सएप को देखा, जिसमें जिले से लेकर देश, प्रदेश तक नेताओं के डॉ अंबेडकर को श्रद्धांजलि देने के नाम पर सन्देश आ रहे थे और मुझे वो ढोंग लग रहे रहे थे, दुखद ये था कि सत्ता या विपक्ष कहीं पर भी किसी ने आज के दिन किसी एक गरीब बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी लेने वाला बयान नहीं देखा । अरुण जा चुका था, भरी दोपहर में अंधेरा हो चुका था, मैं विचारों के अन्तर्द्वंद में फंस कर आगे बढ़ चुका था
निजी स्कुलो में फीस और किताबो के बोझ से दबे और सरकारी स्कुलो को हिराकत से देखने वाले माध्यम वर्ग को ऐसे अरुण कब दिखाई देने शुरू होंगे । निजी स्कुलो में सरकारों के सहयोग से ब्रेन स्ट्रोमिंग कार्यक्रम चला कर अवॉर्ड जीतने वाली एनजीओ की आधुनिक समाजसेवियों को इनकी चिंता कब होगी ? दिन रात बस पैसे को ही सब कुछ मानने वाले समाज का असली चेहरा कब बदलेगा ?
क्या इस देश में कभी लोग वाकई डा अम्बेडकर को दिखावे या राजनीती की जगह उनके कही बातों के याद करने की कोशिश करेंगे ? क्या वो सुबह कभी आयेगी जब ऐसे अरुण अम्बेडकर जयंती के दिन फिर से “बोनी” ना होने के कारण लोगो के पास भागते नहीं दिखेंगे ? क्या कभी पत्रकारों, लेखकों को ऐसे अरुण की व्यथा लिखने की जगह ये लिखना पड़ेगा कि देश में डा अम्बेडकर को सच्ची श्रधान्जली देते हुए हमने देश के हर अरुण को शिक्षा रूपी शेरनी का वो दूध पिला दिया है जिसके बाद वो दहाड़ रहा है, हर अरुण चमक रहा है ।