30 मई को विश्व हिंदी पत्रकारिता दिवस है । आज ही के दिन लगभग 200 वर्ष पूर्व 1826 को उदन्त मार्तंड नामक हिंदी का पहला अखबार प्रकाशित हुआ था । इसीलिए यह हिंदी भाषा में पत्रकारिता की शुरुआत को चिह्नित करता है। यह दिन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास और पत्रकारों के योगदान संघर्ष को याद दिलाता है। हिंदी पत्रकारिता ने आजादी की लड़ाई से लेकर डिजिटल युग तक लंबा सफर तय किया है, लेकिन आज भी यह भाषा और बाजार के बीच की खाई से भी जूझ रही है। आज हिंदी पत्रकारिता आज एक दोराहे पर खड़ी है। एक ओर फेक न्यूज, टीआरपी की होड़ और निष्पक्षता को लेकर संकट है तो दूसरी ओर झूठे रंगदारी और अपराधिक मुकदमों के चलते अस्तित्व पर भी संकट है ।
ऐसे में हम देश में सरकारो अपराधियों और धनपशुओं के विरुद्ध जनता के लिए संघर्ष करने वाले हिंदी पत्रकारों की स्थिति पर चर्चा करें उससे पहले उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से पत्रकार इसरार द्वारा खनन माफिया पर खबर छापने और उसके परिणाम स्वरुप खनन माफिया और प्रशासन की मिलीभगत के चलते रंगदारी के मुकदमे से परेशान होकर पत्रकार दंपति की आत्महत्या की खबर को भी देखना आवश्यक है । पूरे प्रदेश में पीलीभीत का यह मामला अकेला या अनोखा नहीं है । प्रदेश में पत्रकारों पर रंगदारी के मुकदमे आम बात हो चुके हैं बस पीलीभीत में आत्महत्या करने के कारण इसकी चर्चा होती दिखाई दे रही है ।
वर्तमान समय में पत्रकारों के समक्ष कम वेतन, असुरक्षित कार्यस्थल, राजनीतिक दबाव और मानहानि रंगदारी के झूठे मुकदमों ने पत्रकारिता को काफी हद तक न सिर्फ धूमिल कर दिया है बल्कि पत्रकारों की सच दिखाने की जिजीविषिका को भी प्रभावित कर दिया है ।
कटुसत्य ये है कि पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मिशन बताने की आड़ में पत्रकारों का जीवन स्तर मजदूरों के लिए सरकार द्वारा घोषित आय से भी नीचे है। हिंदी पत्रकारों के लिए यह स्थिति और भी दयनीय इसलिए हो जाती है क्योंकि इस देश में अंग्रेजी को विशिष्ट समझकर हिंदी से संबंधित पत्रकारों को कमजोर ही समझा जाता है सोशल मीडिया के दौर में हिंदी की स्थिति सुधरी है किंतु आज भी देश में पत्रकारों के दामन को लेकर सरकारो की सोच एक ही पैटर्न पर चल रही है । उत्तर प्रदेश हो या देश या कोई अन्य जगह पत्रकारों को ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है ।
उत्तर प्रदेश में ही अभिषेक उपाध्याय से लेकर ममता तिवारी तक पर सरकार और अधिकारियों के खिलाफ लिखने को लेकर तमाम मुकदमे किए गए। बड़े नाम ओर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के चलते सरकार को इन पर कार्यवाही करना मुश्किल हो गया । किंतु पीलीभीत के इसरार अहमद जैसे पत्रकारों के पक्ष में ना तो कोर्ट खड़ा दिखाई देता है और ना ही सरकारों द्वारा किसी तरीके का सुरक्षा कवच पत्रकारों को मिलता है ।
दुर्भाग्य से कटु तथ्य यह भी है कि पत्रकारों की सहायता के लिए बने प्रेस क्लब अब राजनेताओं की ड्योढ़ी पर नाक रगड़ने वाली हो चुकी है । प्रदेश में कई जगह निर्विरोध चुनाव की घटनाएं इन प्रेस क्लबों की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। इन दिनों ये प्रेस क्लब पीड़ित की आवाज उठाने की जगह राजनेताओं और प्रशासन से शुभकामनाओं के आदान-प्रदान पर अधिक केंद्रित है ।
हालात ये है कि किसी भी घटना को उजागर करने की कीमत पत्रकार को माफिया, अपराधियों के साथ साथ पुलिस प्रशासन की धमकी तक आ गया है । ये धमकियां प्यार के साथ-साथ मुकदमा और उसकी जान की कीमत तक हो सकता है। ऐसे में सिस्टम के खिलाफ अकेला खड़ा हिंदी भाषी पत्रकार या तो रंगदारी के मुकदमों में जेल में बंद दिखाई देता है या फिर इसरार की तरह परिवार के साथ आत्महत्या करने को मजबूर दिखाई देता है ।
ऐसे में बाल दिवस, स्वतंत्रता दिवस की तरह विश्व हिंदी पत्रकारिता दिवस भी हिंदी पत्रकारों को नैतिकता का ज्ञान और शुभकामनाएं देने का एक दिन मात्र बनकर रह गया है किंतु इस दिवस पर हिंदी पत्रकारों और हिंदी पत्रकारिता पर मंडरा रहे खतरों ओर उसके समाधान की कोई राह दिखाई देगी इसकी अपेक्षा पत्रकार कर रहे है ।