राजनीति के गलियारों में इस बार पहले चर्चा भाजपा में बढ़ते शहरीकरण के बाबजूद प्रवासियों को प्रतिनिधित्व न देने को लेकर है। जिला गौतम बुद्ध नगर में तीन विधानसभा नोएडा, दादरी और जेवर आती है जिसको भाजपा ने नोएडा महानगर और गौतम बुध नगर जिला संगठन में बांटा हुआ है । 1998 से नोएडा में भले ही विधायक या सांसद के तौर पर मतदाताओं ने शहरी प्रतिनिधित्व पर अपनी मोहर लगा दी किंतु भाजपा ने आज तक किसी भी शहरी नेता को संगठन में जगह नहीं दी । दरअसल नोएडा जब गाजियाबाद से अलग हुआ उस समय से नोएडा महानगर के पहले अध्यक्ष हरिशचंद्र भाटी, दुसरे डॉ वी एस चौधरी, तीसरे बारजुगराज चौहान, चौथे योगेंद्र चौधरी, पांचवे और छठे विजेंद्र नागर, सातवे राकेश शर्मा,आठवे ओर नवें मनोज गुप्ताऔर वर्तमान में 10वे महेश चौहान उपरोक्त सभी अध्यक्ष देहात की पृष्ठभूमि से आते हैं, पर कभी भी शहर की पृष्ठभूमि से आने वाले कार्यकर्ता को अध्यक्ष बनने का मौका नहीं मिला। ऐसे में बीते दिनों बाकायदा नोएडा महानगर से एक भाजपा नेता ने पत्र लिखकर इस मांग को उठाते हुए प्रदेश के संगठन मंत्री को लिख दिया कि नोएडा एक शहर है जिसमें लगभग 85% से 90% लोग शहर में रहते हैं बाकी देहात से संबंध रखते हैं। नोएडा विधानसभा में 167 सेक्टर, 200 सोसाइटी और 43 गांव आते हैं मत प्रतिशत के अनुपातिक दृष्टि से शहरी लोगों का हिस्सा 85% के आसपास होता है। ऐसे में तुलनात्मक दृष्टि से नोएडा महानगर की भाजपा संगठन में शहरी हिस्सेदारी 85% होने के बाबजूद मात्र 10% से 15% तक हिस्सेदारी मिलती आई है जो कि बिल्कुल गलत है। शहरी कार्यकर्ता को 80% हिस्सेदारी की मांग के इस पत्र से भाजपा में हड़कंप मच गया है। असल में समस्या सिर्फ नोएडा की नहीं रह गई है । ग्रामीण पृष्ठभूमि के गुर्जर, ठाकुर और ब्राह्मण नेताओं ने इसे स्थानीय नेताओं के लिए खतरे की घंटी बता दिया है। चर्चा है कि नोएडा के बाद यह मांग सीधा जिला कार्यालय पर पहुंचेगी यहाँ भी ग्रेटर नोएडा के शहरी होने अंदर ही अंदर दबाब बढ़ रहा है, बीते दिनों जिले में शहरी मंडल अध्यक्ष के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसी राजनीती हुई थी कि उसने भाजपा की सक्रीय सदस्यता तक से इस्तीफ़ा दे दिया थाI बड़ी बात ये है कि मामला सिर्फ भाजपा तक सीमित नहीं रहेगा जिले की अन्य पार्टी सपा, कांग्रेस ओर आप में भी शहरी कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षा हिलोरे मार रही है, वहां भी विवाद होना तय है। चर्चा है कि ग्रामीण नेताओं द्वारा शहरी नेताओं को आगे न बढ़ने देने के चलते ये पार्टियाँ कभी शहरी वोट ले ही नहीं पाती। ऐसे में क्या भाजपा के नोएडा महानगर संगठन से उठी मांग आगे संगठन के बाद दादरी ओर जेवर विधान टिकट तक भी जायेगी यह 2027 के चुनाव से पहले दिखाई देना शुरू हो जाएगा ।
राजनीति के गलियारों में दूसरी चर्चा 26 जुलाई को समाजवादी पार्टी द्वारा संविधान मान स्तंभ कार्यक्रम से नोएडा महानगर को अलग कर देने की है । दरअसल बीते वर्ष पहली बार जब कार्यक्रम हुआ तो नोएडा महानगर में सांसद धर्मेंद्र यादव और जूही सिंह विशेष आमंत्रित अतिथि थे । नोएडा की अग्रसेन धर्मशाला में हुए इस कार्यक्रम में बमुश्किल डेढ़ सौ लोग ही जुटे थे, साथ ही डॉ आंबेडकर के कटआउट को कार्यक्रम में ही किनारे हटा देने के कई विवाद सामने आए थे। उसके विपरीत जिले में अच्छा कार्यक्रम होने की रिपोर्ट गई थी। जिसके कारण इस बार नोएडा महानगर को इस कार्यक्रम से अलग कर दिया गया । इसे नोएडा में समाजवादी पार्टी में यादव, गुर्जर के मुकाबले खड़ी हुई वैश्य राजनीति के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है चर्चा तो यह भी है कि स्थानीय वैश्य नेतृत्व द्वारा अपनी जाती के पार्टी विरोधी व्यापारी द्वारा चलाए जा रहे एक अखबार पर अखिलेश यादव के खुले विरोध के आदेश के बाबजूद उसे 35 वर्ष होने पर दिए गए शुभकामना विज्ञापन भी इसका कारण हो सकता है । सपा में नोएडा महानगर के कुछ नेताओं का कहना है कि शीर्ष नेतृत्व को यह नागवार गुजरा है। जिले के वैश्य समुदाय के नेताओं द्वारा अखिलेश यादव की बात दरकिनार कर अपने समुदाय के अखबार को विज्ञापन देना सीधा विद्रोह ही तो है। ऐसे में संविधान मान स्तंभ कार्यक्रम से नोएडा महानगर के वैश्य नेताओं को दरकिनार करने का परिणाम जल्द ही यहां दिख सकता है वहीं गौतम बुद्ध नगर में इस कार्यक्रम को करके अपने नंबर पक्के करने वाले सुधीर भाटी फिलहाल सेफ दिखाई दे रहे है।
राजनीति के गलियारों में इस बार तीसरी चर्चा में क्षेत्र में किसानों की प्रमुख आवाज बनकर उठे नेताओं का अब गुर्जर, ठाकुर या यादव बन जाने से उनके पतन पर है । दरअसल बीते कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में कई किसान नेताओं ने शासन प्रशासन के विरोध में ताल ठोकी है जिसमें मनवीर भाटी, सुखवीर खलीफा, डॉ रुपेश वर्मा, पवन खटाना, भानु प्रताप सिंह समेत कई नाम इन नेताओं ने यहां बड़े-बड़े आंदोलन किया किंतु धीरे-धीरे किसानो की आड़ में इनका जातीय स्वरूप बाहर आना शुरू हो गया हालत यह है कि अब एक-एक करके इन नेताओं के ठाकुर, गुर्जर या यादव होने के असली चेहरे निकलते जा रहे है । चर्चा है कि कभी किसानों के बड़े नेता होने के लिए लोग अब अपने-अपने जातियों के नेताओं के अवैध कब्जों पर अतिक्रमण के समय किसान नेताओं की आड़ में विरोध करते दिखाई देते हैं और प्राधिकरणों के कर्मचारियों पर अधिकारियों पर हमला करने से भी नहीं चुक रहे है बीते दिनों आमका गांव में ऐसी ही एक घटना में भूमाफियाओं द्वारा अवैध कॉलोनी को तोड़े जाने पर अधिकारियो पर हमले के बाद किसान नेताओं द्वारा विरोध और प्रदर्शन की बातें सामने आई थी शनिवार को पतवारी गांव में सुखबीर खलीफा के विरोध को भी लोग इसी क्रम में रख रहे है। इससे पहले नोएडा के बरौला गांव में ठाकुर समुदाय के किसान नेता अपने समुदाय की भूमाफियाओं की जमीनों को किसान नेताओं की आड़ में रोकने के असफल प्रयास करते रहे है । इन नेताओं के जातीय चक्रव्यूह में फंसने से शहर में अब चर्चाएं होने लगी हैं कि क्या जिले में कथित तौर पर किसान नेताओं की राजनीति के पतन का समय अब आ चुका है क्या 2027 से पहले इस जिले में ब्लैकमेलिंग और दलाली का माध्यम बन चुकी किसां नेतागिरी समाप्त हो जाएगी या फिर यह इससे भी खराब रूप में सामने आएगी।