आशु भटनागर। पिछले एक दशक में, भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया की भूमिका एक अभूतपूर्व परिवर्तन से गुज़री है। कभी जमीनी स्तर पर जनमत बनाने का सशक्त माध्यम माना जाने वाला यह मंच, अब एक जटिल व्यावसायिक परिदृश्य में तब्दील हो चुका है। भारतीय राजनीती में विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संदर्भ में, सोशल मीडिया के साथ उसका संबंध कई चरणों से होकर गुजरा है, जो आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां प्रामाणिकता और जमीनी जुड़ाव सवालों के घेरे में हैं। यह विश्लेषण हमारे पाठको को इस बदलाव की गहराई को समझने में मदद करेगा, ताकि वे ऑनलाइन राजनैतिक सूचनाओं के प्रवाह को एक नए दृष्टिकोण से देख सकें।
2013-14: जब इन्फ्लुएंसर थे ‘सितारे’ और नेता उनके ‘प्रशंसक’
भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया का वास्तविक उभार 2013-14 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले देखा गया। तत्कालीन विपक्षी दल आम आदमी पार्टी और भाजपा ने इस माध्यम की अप्रयुक्त शक्ति को सबसे पहले पहचाना और उसका दोहन किया। यह एक ऐसा दौर था जब पार्टी के शीर्ष नेता, जिन्हें आज हम सत्ता के शिखर पर देखते हैं – केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री – स्वयं सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के आगे-पीछे घूमते थे। वे उनसे मिलने के लिए लालायित रहते थे, उनके विचारों को सुनते थे, और उनके माध्यम से अपनी बात जनता तक पहुँचाने की कोशिश करते थे।
यह एक अभूतपूर्व प्रयोग था। भाजपा के कई बड़े नेताओं ने स्वयं इन डिजिटल आवाजों को व्यक्तिगत रूप से पहचाना, उनके योगदान की सराहना की और उन्हें पार्टी के विशाल अभियान का एक अभिन्न अंग बनाया। इस समय, सोशल मीडिया एक ‘टूल’ से बढ़कर एक ‘आंदोलन’ का रूप ले रहा था, जहाँ हजारों-लाखों आम नागरिक, जो पार्टी की विचारधारा में विश्वास रखते थे, स्वेच्छा से अपनी डिजिटल पहचान का उपयोग भाजपा के संदेशों को फैलाने, विरोधियों के दावों का खंडन करने और एक सकारात्मक वातावरण बनाने के लिए कर रहे थे। यह एक जैविक, जमीनी स्तर का जुड़ाव था, जिसकी नींव विश्वास और साझा उद्देश्य पर टिकी थी। इन्फ्लुएंसर्स वास्तविक ‘वैल्यू क्रिएटर्स’ थे, जिनकी पहुँच और प्रभाव को स्वीकार किया जा रहा था।
2014-19: ‘साइबर योद्धाओं’ का राज और सोशल मीडिया का स्वर्ण युग
2014 में भाजपा की प्रचंड जीत के बाद, सोशल मीडिया की शक्ति की पुष्टि हो चुकी थी। यह वह समय था जब “साइबर योद्धा” शब्द गढ़ा गया और उसे सम्मान के साथ देखा जाने लगा। जीतने के बाद, भाजपा के सभी मंत्री, मुख्यमंत्री और यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी इन इन्फ्लुएंसर्स के महत्व को भली-भांति समझते थे। विशेष बैठकें आयोजित की जाने लगीं, सोशल मीडिया के लिए समर्पित समूह बनाए गए, और इन डिजिटल अग्रदूतों को महत्वपूर्ण माना जाने लगा।
इस दौर में, भाजपा का सोशल मीडिया तंत्र अपने चरम पर था। सरकार की नीतियों को तुरंत जनता तक पहुँचाया जाता था, विपक्ष के हर हमले का सटीक और संगठित तरीके से जवाब दिया जाता था। इन्फ्लुएंसर्स को न केवल पहचान मिली, बल्कि उन्हें सीधे पार्टी और सरकार के भीतर से जानकारी और निर्देश भी मिलने लगे। यह एक सहजीवी संबंध था, जहाँ इन्फ्लुएंसर्स को लगता था कि वे एक बड़े मिशन का हिस्सा हैं, और पार्टी को एक शक्तिशाली, स्वयंसेवक-आधारित संचार नेटवर्क का लाभ मिल रहा था। यह वह समय था जब भाजपा ने सोशल मीडिया पर एक अद्वितीय बढ़त बना ली थी, जो उनकी चुनावी सफलताओं में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुई। यह एक संगठित लेकिन फिर भी काफी हद तक ‘ऑर्गेनिक’ विकास था, जिसमें वास्तविक व्यक्तियों के जुनून और प्रतिबद्धता की अहम भूमिका थी।
2019-2024: दूरी, व्यवसायीकरण और ‘ठेका’ संस्कृति का उदय
लेकिन 2019 के बाद, एक स्पष्ट और चिंताजनक बदलाव देखा गया। सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने और अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद, वही नेता, मंत्री और मुख्यमंत्री, जिन्होंने कभी इन्फ्लुएंसर्स को ‘साइबर योद्धा’ का खिताब दिया था, अब उनसे सीधे मिलने से कतराने लगे। व्यक्तिगत संबंध और सीधे संवाद की जगह अब बड़ी कंपनियों को सोशल मीडिया के प्रबंधन के ठेके मिलने लगे।
यह एक ‘ठेकेदार’ मानसिकता का उदय था। पार्टी ने शायद सोचा कि पेशेवर एजेंसियां या बड़ी कंपनियाँ अधिक संगठित और कुशल तरीके से सोशल मीडिया अभियान चला सकती हैं। इन्फ्लुएंसर्स को अब ‘स्वयंसेवक’ या ‘योद्धा’ के बजाय, एक ‘उपकरण’ या ‘संसाधन’ के रूप में देखा जाने लगा, जिन्हें उनके काम के लिए ‘मेहनताना’ दिया जाता था, न कि उन्हें पार्टी की कोर टीम का हिस्सा माना जाता था। यह ठीक वैसा ही था, जैसे कोई पूंजीपति अपने मजदूरों से सीधे बात करने के बजाय ठेकेदारों के माध्यम से काम करवाना पसंद करे। इन्फ्लुएंसर्स, जो कभी पार्टी के लिए समर्पित रूप से काम करते थे, अब खुद को एक ‘मजदूर’ की तरह महसूस करने लगे, जिनकी अब सीधे ‘मालिक’ (बड़े नेता) से मुलाकात की जरूरत नहीं थी, क्योंकि अब ‘ठेकेदार’ बीच में आ गए थे। इस बदलाव ने जैविक जुड़ाव को कमजोर किया और सोशल मीडिया को एक ‘धंधे’ में बदल दिया और इसकी परिणिति 2024 के चुनाव परिणामो में मुश्किल से बहुमत तक आई भाजपा को दिखाई भी दी है।
2024 से आगे: नकली हैंडल, कृत्रिम इकोसिस्टम और विश्वास का क्षरण
आज की स्थिति और भी विकट है। ‘इन्फ्लुएंसर’ के नाम पर अब ‘हैंडलों के ठेकेदार’ सामने आ गए हैं। ये ठेकेदार बड़े-बड़े बजट लेकर आते हैं और फर्जी हैंडल का एक पूरा नेटवर्क तैयार करते हैं। इन फर्जी हैंडलों से आपस में ही रीपोस्ट, लाइक और व्यूज बढ़ाए जाते हैं। सोशल मीडिया पर कृत्रिम इकोसिस्टम बनाकर ‘ट्रेडिंग’ और ‘ट्रेंडिंग’ को प्रभावित किया जाता है, जिसका वास्तविक जनमत से कोई लेना-देना नहीं होता। लाइक और व्यूज के लिए अनगिनत तरीके विकसित हो गए हैं, जिनमें बॉट, क्लिक फार्म और संगठित ‘ट्रॉल’ सेनाएँ शामिल हैं। रोचक तथ्य ये है कि सब कुछ जानते हुए भी भाजपा ही नहीं बल्कि सभी राजनैतिक दलों ने नेता अब इस खेल में ना सिर्फ शामिल हो गए है बल्कि उसमे फुलस्विंग में खेल भी रहे है
यह सब कुछ सिर्फ संख्याएँ दिखाने के लिए है, वास्तविक जनमत या प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं। इस प्रक्रिया में, असली और ईमानदार इन्फ्लुएंसर, जो कभी निस्वार्थ भाव से पार्टी का समर्थन करते थे, आज वे खुद को मूर्ख और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उनका जुनून और समर्पण अब सिर्फ एक व्यावसायिक मॉडल का हिस्सा बन गया है, जहाँ ‘ठेकेदार’ वास्तविक मुनाफा कमा रहे हैं, जबकि ‘बॉट’ और फर्जी हैंडल असली आवाजों को दबा रहे हैं। यह स्थिति न केवल सोशल मीडिया की विश्वसनीयता के लिए खतरा है, बल्कि यह पार्टी और उसके समर्थकों के बीच के मूलभूत विश्वास को भी नष्ट कर रही है।
इस पूरे विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि भाजपा, जो कभी सोशल मीडिया पर एक अजेय शक्ति थी, आज अपने दम पर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), और आम आदमी पार्टी (आप) जैसी विपक्षी पार्टियों से कहीं पीछे है। उनकी डिजिटल शक्ति अब उतनी जैविक और स्वाभाविक नहीं रही जितनी कभी थी।
भाजपा समर्थक इन्फ़्लुएन्सर और पूर्व मंडल अध्यक्ष रवि भदोरिया सोशल मीडिया पर अपना रोष प्रकट करते हुए लिखते है कि भाजपा को अब कभी अपने धुर विरोधी रहे इन्फ्लुएंसर्स को ‘खरीदना’ पड़ रहा है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पार्टी अपने दम पर उतना ‘पॉजिटिव नरेटिव’ या ‘काउंटर नरेटिव’ नहीं बना पा रही है, जितनी उसे जरूरत है। जब आपके अपने वफादार स्वयंसेवक और ‘भक्त’ इन्फ्लुएंसर्स, जो निस्वार्थ भाव से काम करते थे, खुद को उपेक्षित महसूस कर पीछे हटते हैं, तो मैदान खाली हो जाता है। और एक खाली मैदान को भरने के लिए, आपको उन आवाज़ों को ‘खरीदना’ पड़ता है, जो कभी आपके धुर विरोधी हुआ करते थे। यह एक गंभीर रणनीतिक चूक है, जो दीर्घकालिक रूप से पार्टी की विश्वसनीयता और आधार को कमजोर कर सकती है।
ऐसे में सोशल मीडिया पर हो रहा ये पतन का यह डर सिर्फ भाजपा के लिए नहीं, बल्कि अन्य राजनैतिक दलों के साथ साथ भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक चेतावनी है। जब डिजिटल संवाद एक व्यापार बन जाता है, और जब प्रामाणिकता की जगह कृत्रिमता ले लेती है, तो वास्तविक जनमत की आवाज दब जाती है। यह समय है कि राजनीतिक दल इस ‘व्यवसायीकरण’ के परिणामों पर गंभीरता से विचार करें, क्योंकि जनता केवल संख्याओं से प्रभावित नहीं होती। वह विश्वसनीयता और ईमानदारी की तलाश करती है, जो किसी भी ‘ठेकेदार’ या ‘फर्जी हैंडल’ से नहीं खरीदी जा सकती।