हाल ही में राजस्थान के झालावाड़ में एक सरकारी स्कूल की छत गिरने से अनेक मासूम बच्चों की जान चली गई। यह घटना न केवल शिक्षा प्रणाली की खामियों को उजागर करती है, बल्कि हमारी समाज व्यवस्था की उस कड़वी सच्चाई को भी सामने लाती है जहां जिम्मेदार अधिकारियों और नेताओं की लापरवाहियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सवाल उठता है कि क्या इस त्रासदी का कभी सही जवाब मिलेगा, या फिर यह भी एक और केस बनकर भुला दिया जाएगा?
ज्ञात हो कि यह घटना केवल एक इमारत के ढहने से नहीं जुड़ी है, बल्कि यह हमारी शिक्षा प्रणाली की उस लचर स्थिति को दर्शाती है जिसे सुधारने की कतार में हम केवल चुप्पी साधे खड़े हैं। देश भर में स्कूलों की दयनीय स्थिति और बच्चों की सुरक्षा के प्रति सरकारी उदासीनता को देखकर लगता है कि हम सच्चे बकरों की तरह हैं, जो अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। समाज के इस ताने-बाने में, क्या हम केवल उस स्थिति को रौशनी में लाने का काम कर रहे हैं जब हमारी बारी आएगी?
“जब कलेक्टर साब का ऑफिस गिरेगा, तो इंजिनियर को उल्टा टांग देंगे,” ऐसा ही कुछ नजरिया देश में चलन में है। महामारी, प्राकृतिक आपदाएं, और अब यह ढहती छतें—इन सबके बीच एक बात साफ है: जिम्मेदार लोग हमेशा कुर्सियों पर बने रहते हैं। जब स्कूल गिरता है, तो केवल बच्चे ही मरते हैं, जबकि अधिकारियों को अपनी कुर्सियों से नहीं हिलना होता।
देश भर में इस घटना पर शिक्षा मंत्री के त्यागपत्र ना देने पर अलग चर्चा है, एक वरिष्ठ पत्रकार ने इस विषय पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन हमें मंत्री की जगह केवल मास्टर साहब को बलि का बकरा बनाना आसान लगता है। यह एक प्रणालीगत विफलता है, और इसके लिए पूरी व्यवस्था को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।”
सत्य यह है कि जब किसी मंत्री का आवास टूटता है, तो न केवल उसे, बल्कि उसके विभाग के सारे आला अधिकारी सस्पेंड कर दिए जाते हैं। वहीं, जब संसद की दरारें आती हैं, तो नये भवन का निर्माण भी शुरू हो जाता है। क्या यह दिखाता है कि हमारे देश के सबसे महत्वपूर्ण लोग अपनी सुरक्षा के लिए कितने गंभीर हैं?
समाज का यह सोचने का तरीका हमें एक गंभीर प्रश्न पर मजबूर करता है, क्या हम केवल दूसरों की पीड़ा का मज़ा लेने के लिए जी रहे हैं, या हम भी कभी अपनी बारी के बारे में सोचे हैं? सभी अधिकारी और माननीय हमारे शुभ चिंतक हैं, इस बात का विश्वास हमें करना पड़ेगा। लेकिन, क्या यह विश्वास उन बच्चों के मृत शरीरों पर खड़ा हो सकता है जो इस सिस्टम की लापरवाही का शिकार हुए?
अंततः, हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का दुर्भाग्य केवल स्कूल की छत के गिरने से नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक समस्या है। सुधार की आवश्यकता केवल विशेष व्यक्तियों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आवश्यक है। हमें अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा न हो कि अगली बार जब कोई छत गिरे, तो उसकी चपेट में फिर से केवल बच्चे ही आएं।