आशु भटनागर । मेरठ में रोडरेज के एक प्रकरण में कथित तौर पर पिछड़ा वर्ग से आने वाले अब समृद्ध और शक्तिशाली गुर्जर समुदाय के एक कथित भाजपा किसान नेता ने भाजपा के ही वोटर कहे जाने वाले वैश्य समुदाय के व्यक्ति को न सिर्फ उसको मारा पीटा बल्कि सड़क पर सबके सामने नाक रगड़वाई । घटना के दौरान उक्त भाजपा नेता द्वारा वहां के स्थानीय विधायक और मंत्री सोमेन्द्र तोमर का नाम लेकर दबाब भी बनाया गया I इस पूरे प्रकरण में घटनास्थल पर उपस्थित पुलिस भी मूकदर्शक बनी रही। मामला सोशल मीडिया में उछला तो पुलिस ने 151 में कार्यवाही कर दी I बाद में जन दबाब बढ़ने पर पुन: कार्यवाही की जा रही है । घटना के दौरान मौजूद तीन पुलिसकर्मियों चौकी प्रभारी गौरव सिंह, हेड कॉन्स्टेबल चेतन और कॉन्स्टेबल बृजेश को भी एसएसपी डॉ. विपिन ताडा ने लाइन हाजिर कर दिया है। पुरे प्रकरण में सत्तारूढ़ भाजपा ने मौके की संवेदनशीलता को देखते हुए तुरंत ही कार्यवाही करते हुए अपने विवादित नेता को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाते हुए निष्पक्ष कार्यवाही की मांग की है।
दूसरी घटना में नोएडा में प्रजापति समाज से आने वाले मकान मालिक ने बाहर से आए पूर्वांचल समाज की महिला को न सिर्फ थप्पड़ मारा और मारपीट की। दुखद तथ्य यह है कि यहां भी पिछड़े समाज से आने वाले एक मकानमालिक का विचार उक्त महिला के साथ किये गये अकल्पनीय दुर्व्यवहार की जगह किराएदारों को सर पर न चढ़ाने को लेकर था यानी भेदभाव का एक नया पक्ष यहां भी है । मेट्रो शहरों में गांव की जमीनो पर मुआवज़े से बनाए गए मकानो में रहने वाले किराएदारों को दलितों से भी बदतर स्थिति में मानने की सोच कोई नई-नहीं है जहाँ जो भी स्थानीय या दबंग या मालिक है वो दुसरो को दासो की तरह समझ रहा है।

तो क्या यह बीते 70 वर्षों में इस देश में बराबरी के कथित सामाजिक विकास का नया स्वरूप बन गया है । क्या सामाजिक बराबरी का मापदंड अब इतना बदल गया है कि खुद को दलित और पिछड़ा बताने वाले खुद को प्रताड़ित करने वाले सवर्ण समाज से नफरत करते करते अब उसी समाज के लोगों को प्रताड़ित करने पर आ गए हैं। उत्तर प्रदेश ही नहीं देशभर से गाहे-बेगाहे ऐसे समाचार भी आते हैं जहां ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य, पंजाबी जैसे कथित तौर पर सवर्ण समाज के साथ साथ पूर्वांचली, पहाड़ी और नार्थ ईष्ट को प्रताड़ित किया जा रहे हैं। जिसके बाद लगातार कई प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
लेकिम एक कटु सत्य ये भी है कि इस सबके बावजूद दलित समाजके लोगो के साथ शोषण की घटनाएं भी हो रही है। अभी भी गाहे बेगाहे दलित समाज के साथ अन्याय के वीभत्स समाचार आते हैं। दो दिन पूर्व भी प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास एक दलित को अपना ही पेशाब चाटने पर मजबूर करने का भी समाचार आया। यह समाचार भी अकेला नहीं है ऐसे कई समाचार बीते कई वर्षों में लगातार सामने आए हैं बस हैरत की बात यह है कि यहां भी प्रताड़ित करने वाले व्यक्ति अधिकतर मामलों में पिछड़े समाज से हैं यहाँ तक कि लखनऊ में भी आरोपी स्वामी कान्त पिछड़े वर्ग से आता है।

तो क्या फिर सवर्णों द्वारा दलितों के शोषण का सच क्या कुछ और भी है ?
सामाजिक विश्लेषक मानते हैं कि दलित हो, प्रवासी हो या सवर्ण समाज के कमज़ोर वर्ग, सभी की प्रताड़ना के खेल में शामिल लोग सबसे ज्यादा मार्शल कौम से आते हैं।अधिकांश मामलो में यह मार्शल कौम सवर्ण समाज में भूमिहार, क्षत्रिय या राजपूत हो सकते हैं या फिर पिछड़ा वर्ग से यादव, गुर्जर, जाट जैसे वर्ग से हो सकते है। दरअसल बीते ७०० वर्षो में मुगलों, फिर अंग्रेजो के समय भारत के सामंतवादी व्यवस्था में शोषण करने वाली जातियों में इन जातियों का प्रमुख रोल रहा है। यह जातियां यहां भारत की सामंतवादी व्यवस्था में नंबरदार, प्रधान जैसे पदों पर सुशोभित रही है । जो तब के जमींदारों, नवाबो और छोटे राजाओ के लिए कार्य करते थे और लगान वसूलने के लिए आम जन के शोषण की इंतहा तक जा सकते थे। ऐसे में इनका शिकार अधिकतर कृषक वर्ग, मजदूर वर्ग या फिर गरीब तबके के अपनी जाति के भी लोग होते आए हैं। किन्तु इसमें भी शुद्र (अनुसूचित जाति) और अनुसूचित जनजाति के लोग सामजिक रूप से हाशिये पर लोग अधिक प्रताड़ित थे। इन्हीं के शोषण के विरुद्ध इस देश में दलितों को शोषण से बचाने के लिए एससी-एसटी एक्ट का निर्माण किया गया था।
तब इस शोषण के विरोध को मनुस्मृति या ब्राह्मणवाद का विरोध का नाम दिया गया। जिसके चलते सारा आरोप खिसक कर ब्राह्मण समुदाय पर घोषित हो गया जबकि इसकी आड़ में अन्य लोग शोषण भी करते रहे। प्रारंभ में इसके सुखद परिणाम आये, इसके चलते दलित वर्ग के लोग अधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री तक बने। इसी क्रांति का एक सुखद परिणाम ये भी है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य को मायावती के रूप में पहली दलित महिला मुख्यमंत्री मिली और उसका परिणाम ये हुए कि तब शोषण को अपनी नियति मानने वाले समाज के लोग थानों में एफ़ाइआर तक लिखवाने के लिए खड़े होने लगे। किंतु बदलते दौर में एससी एसटी एक्ट की तरह ही दलितों के साथ-साथ अन्य पढ़ी-लिखी कमजोर सवर्ण जातियों पर भी यह मार्शल कौम हावी होती जा रही है। तो क्या सामाजिक समरसता के नाम पर संख्या बल की दबंगई अब शोषण और शोषित समाज को नए रूप में परिभाषित कर रही है और क्या इस पर विशेष चिंतन की आवश्यकता भी है।
गौतम बुद्ध नगर के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक चिन्तक राजेश बैरागी शोषण और दबंगई की इन घटनाओं के बीच अब दलित और शोषित की नयी परिभाषा बताते हुए कहते है कि सामाजिक बदलावों के बाद अब नए भारत में दलित, पिछड़ा या शोषित वो है जो बदले परिवेश में नए बने दबंगो के सामने शोषण के बाबजूद माफ़ी मांगने, दबंगों पर किसी कार्यवाही करने से इनकार करने जैसे बयान देकर भविष्य में अपने साथ होने वाली अन्य दुर्घटनाओं को रोकने की सोचता है। ऐसे लोग किसी भी समाज से हो सकते हैं शोषक और शोषित के बीच इस नए परिवर्तन के कई सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक कारण है।
सर्वविदित है कि जातीय दुराग्रह वाले भारतीय समाज में अभी भी जातीय भेदभाव सामाजिक, जातीय आधार के साथ-साथ आर्थिक कमजोरी के साथ भी होता है। जहां जिस परिवेश में जो कमजोर है, जो लड़ नहीं पा रहा है वही प्रताड़ित हो रहा है। ऐसे में जातीय आधार पर अपमान अक्सर एक खास वर्ग का नहीं बल्कि समाज में कमजोर दिखाई देने वाले किसी भी व्यक्ति का होने लगा है। देश में प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान का अधिकार दिलाने के लिए आवश्यक है कि अब एक विशेष जाति को सम्मान देने वाले की लड़ाई को अब प्रत्येक जाति के कमजोर लोगों को सम्मान दिलाने की लड़ाई बनाई जाए और इस लड़ाई के लिए सभी दबे कुचले लोगों को एक साथ आने की आवश्यकता है।
ऐसे में बड़ा प्रश्न यह है कि दलितों और शोषितों के शोषण को रोकने और उसके लिए आवाज उठाने की ताकत देने वाले एससी एसटी एक्ट की क्या अब वाकई वैसी ही जरूरत है? जैसे आज से 70 साल पहले थी या फिर अब इसमें बदलाव की आवश्यकता है । कई विचारकों का मानना है कि अब एससी एसटी एक्ट को जाति सूचक अपमान या शोषण को रोकने के कानून के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। जिससे शोषण के विकसित हो रहे नए रूप से सभी प्रकार की जातियों के पीडितो की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और किसी भी प्रकार के जातीय भेदभाव पर सामान रूप से कार्यवाही की जा सके।
इस परिवर्तन के लिए देश में होने जा रही जातीय जन गणना के बाद एक बार फिर से पिछड़ा वर्ग और उसके शोषण की परिभाषा को रेखांकित करना आवश्यक है। इसके साथ सभी दबंग मार्शल कौमो को सामान्य जातियों में लाना भी आवश्यक है ताकि देश में हमारे पूर्वजो द्वारा देखे गए ऐसे समावेशी, स्वस्थ और सुदृढ़ समाज के सपने को साकार किया जा सके जहाँ जातीय दबंगई को रोका जा सके और कमज़ोर पिछड़े समाज का शोषण ना हो सके।


