पिछले कुछ दिनों से बिहार के राजनीतिक गलियारों में एक खास चर्चा गर्म है – ‘वोट चोरी’ या चुनावी धांधली का दावा। सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक बहसों तक, यह आरोप जोर-शोर से लगाए जा रहे हैं कि बिहार में वोटों की गिनती में हेरफेर हुई है, खासकर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के मत प्रतिशत और सीटों की संख्या को लेकर। मुख्य तौर पर यह तर्क दिया जा रहा है कि RJD को 23% वोट पर केवल 25 सीटें मिली हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी (BJP) को 20% वोट पर 89 सीटें। प्रथम दृष्टया यह आंकड़ा विसंगतिपूर्ण लग सकता है, लेकिन चुनावी राजनीति की गहराई से पड़ताल करने पर यह साफ हो जाता है कि यह तुलना भ्रामक है और इसमें ‘चोरी’ जैसा कुछ भी नहीं है। यह बिहार की जटिल गठबंधन राजनीति, सीटों के बंटवारे और मतदाताओं के व्यापक रुझान का सीधा परिणाम है। एक विशेषज्ञ विश्लेषण के रूप में, आइए इन दावों की सच्चाई को आंकड़ों और राजनीतिक हकीकत की कसौटी पर परखते हैं।
RJD बनाम BJP: गलत तुलना का खेल
सबसे पहले, हमें उस मूल तर्क को समझना होगा जिस पर ‘वोट चोरी’ का दावा टिका है RJD के 23% वोट पर 25 सीटें और BJP के 20% वोट पर 89 सीटें – यह आंकड़ा अपने आप में अधूरा और भ्रामक है। भले ही और बिहार में मिली हार के बाद तेजवी यादव के सोशल मीडिया पर भी कहा गया था पर चुनावी गणित को समझने के लिए केवल कुल मत प्रतिशत और कुल सीट संख्या देखना पर्याप्त नहीं होता, बल्कि यह देखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि किस पार्टी ने कितनी सीटों पर चुनाव लड़ा है।

यहां महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि RJD ने 143 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि BJP केवल 101 सीटों पर मैदान में थी। जब कोई पार्टी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती है, तो स्वाभाविक रूप से उसका कुल मत प्रतिशत बढ़ जाता है, क्योंकि उसे अधिक विधानसभा क्षेत्रों से वोट मिलते हैं। वहीं, एक पार्टी जो कम सीटों पर चुनाव लड़ती है, उसका कुल मत प्रतिशत तुलनात्मक रूप से कम दिखाई देता है, भले ही वह लड़ी हुई सीटों पर बहुत अच्छा प्रदर्शन क्यों न करे।
कल्पना कीजिए, अगर BJP भी RJD की तरह 143 सीटों पर चुनाव लड़ती और उन अतिरिक्त 42 सीटों पर भी अपने मौजूदा औसत प्रदर्शन को दोहरा पाती, तो उसका मत प्रतिशत आसानी से 29% तक पहुंच सकता था। ऐसे में, RJD का 23% और BJP का संभावित 29% मत प्रतिशत, और सीटों की संख्या (BJP की 89 बनाम RJD की 25) के बीच की खाई कम नहीं, बल्कि और चौड़ी होती। यह तुलना सेब और संतरे की तुलना करने जैसा है। एक ही तराजू पर दोनों को तौलने के लिए, उनके लड़ने की शर्तों को भी समान होना चाहिए, जो यहां नहीं था।

बिहार का चुनावी सत्य: पार्टियों नहीं, गठबंधनों ने लड़ा चुनाव
बिहार की चुनावी राजनीति का एक मूलभूत सत्य यह है कि यहां चुनाव पार्टियां अकेले नहीं लड़तीं, बल्कि उन्हें गठबंधन लड़ते हैं। मतदाता एक पार्टी को नहीं, बल्कि एक गठबंधन को चुनते हैं या नकारते हैं। यही कारण है कि व्यक्तिगत पार्टियों के मत प्रतिशत और सीटों की तुलना करना अक्सर अधूरा विश्लेषण होता है।
असली मुकाबला दो बड़े गठबंधनों के बीच था: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन। आंकड़ों के अनुसार, NDA ने कुल मतों का 46% हासिल किया, जबकि महागठबंधन को 38% वोट मिले। यह एक स्पष्ट 8% का अंतर है जो दोनों गठबंधनों के बीच मौजूद था। यह 8% का अंतर किसी ‘चोरी’ का परिणाम नहीं, बल्कि मतदाताओं की स्पष्ट पसंद का प्रतिबिंब है।
NDA की बढ़ती बढ़त: 2020 से 2024 तक का सफर
NDA और महागठबंधन के बीच वोटों का यह अंतर कोई नया नहीं है। पिछले चुनावों के आंकड़ों पर गौर करना आवश्यक है:
2020 विधानसभा चुनाव: NDA को महागठबंधन की तुलना में लगभग 12,000 वोट अधिक मिले थे। यह बढ़त बहुत मामूली थी, लेकिन NDA को जीत दिलाने में सफल रही थी।
2024 लोकसभा चुनाव: इस बार NDA की बढ़त नाटकीय रूप से बढ़ी। NDA को महागठबंधन की तुलना में 44 लाख से अधिक वोट ज्यादा मिले। यह एक विशाल अंतर है जिसे महागठबंधन पाट नहीं सका।
यह 8% का अंतर, जो हमने 2024 के लोकसभा चुनावों में देखा, वही अंतर है जो बिहार की राजनीति में NDA को एक मजबूत स्थिति में रखता है। यदि विधानसभा चुनावों में भी यही रुझान बरकरार रहा (जैसा कि अक्सर होता है), तो NDA की सीटों की संख्या अधिक होना स्वाभाविक है।
NDA की सफलता के पीछे के कारक: चिराग, उपेंद्र और सामाजिक समीकरण
सवाल उठता है कि NDA की यह मजबूत बढ़त, खासकर 2020 और 2024 के बीच, आखिर आई कहां से? इसका जवाब गठबंधन की रणनीति और नए सहयोगियों को जोड़ने में छिपा है।
NDA की 8% की बढ़त में दो प्रमुख चेहरों का बड़ा योगदान है: चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा।
चिराग पासवान (5%): 2020 के विधानसभा चुनावों में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने NDA से अलग होकर चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में LJP (रामविलास) ने अपने बल पर लगभग 5% वोट हासिल किए थे, जिसने NDA को कुछ सीटों पर नुकसान पहुंचाया था। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले चिराग पासवान NDA में वापस आ गए। उनके अपनी बिरादरी और युवाओं के बीच बढ़ते जनाधार ने NDA के वोट बैंक में यह महत्वपूर्ण 5% का इजाफा किया।
उपेंद्र कुशवाहा (1%): उपेंद्र कुशवाहा भी 2020 में NDA का हिस्सा नहीं थे। उन्होंने बाद में NDA में वापसी की। उनका अपने समाज में एक निश्चित प्रभाव है, जिसने NDA के वोट प्रतिशत में करीब 1% का योगदान दिया।
मोटे तौर पर देखें तो, महागठबंधन के वोट बैंक में बहुत बड़ी गिरावट नहीं आई है। उनका मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण काफी हद तक बरकरार है। लेकिन NDA ने अपने आधार को सफलतापूर्वक बढ़ाया है। चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं को साथ लाकर NDA ने उन वोटों को फिर से अपने पाले में कर लिया जो 2020 में या तो अलग हो गए थे या महागठबंधन में चले गए थे। यह सामाजिक इंजीनियरिंग और गठबंधन की ताकत का स्पष्ट उदाहरण है।
महागठबंधन की चुनौती: MY से आगे का रास्ता
यह विशेषज्ञ विश्लेषण इस बात पर भी जोर देता है कि जब तक महागठबंधन केवल अपने पारंपरिक MY (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक पर ही निर्भर रहेगा, तब तक उसे बिहार में परेशानी का सामना करना पड़ेगा। NDA ने विभिन्न सामाजिक समूहों को साधकर एक विस्तृत सामाजिक आधार तैयार किया है, जिसमें सवर्ण, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC), कुछ पिछड़े वर्ग और अन्य जातियां शामिल हैं।
महागठबंधन को अगर NDA की इस मजबूत दीवार को तोड़ना है, तो उसे भी अपने सामाजिक आधार का विस्तार करना होगा। उन्हें EBC, महादलित और सवर्ण समाज में भी विश्वसनीय नेतृत्व तैयार करना होगा और उन तक अपनी पहुंच बनानी होगी। केवल MY समीकरण पर निर्भरता उन्हें सत्ता के करीब तो ला सकती है, लेकिन बहुमत की दहलीज तक पहुंचाना मुश्किल होगा, क्योंकि NDA ने अब एक मजबूत बहुजातीय गठबंधन का निर्माण कर लिया है।
अंततः, बिहार में ‘वोट चोरी’ के दावे आंकड़ों की गलत व्याख्या और चुनावी राजनीति की सतही समझ का परिणाम हैं। विशेषज्ञ विश्लेषण स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि RJD और BJP के मत प्रतिशत और सीटों की तुलना जिस आधार पर की जा रही है, वह दोषपूर्ण है। असली तस्वीर गठबंधनों के प्रदर्शन, सीटों के बंटवारे की रणनीति और नए सहयोगियों के प्रभाव से सामने आती है। NDA की बढ़त कोई अचानक नहीं है, बल्कि यह एक सुविचारित रणनीति, सामाजिक इंजीनियरिंग और पिछले कुछ चुनावों से मिल रहे जनादेश का परिणाम है।



