आशु भटनागर। नोएडा शहर, जो अपनी आधुनिक अवसंरचना और सुनियोजित विकास के लिए जाना जाता है, एक बार फिर रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन (RWA) के सुपर फेडरेशन के चुनावों की सरगर्मी में डूब गया है। लेकिन इस बार का माहौल केवल चुनावी उत्साह तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरे चिंतन और गंभीर सवालों को जन्म दे रहा है: क्या नोएडा के निवासियों को वास्तव में FONRWA (फेडरेशन ऑफ नोएडा रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन) या DDRWA (District Development Residents Welfare Association) जैसे संगठनों की आवश्यकता है? या ये संगठन केवल कुछ व्यक्तियों के लिए प्राधिकरण में अपनी ‘नेतागिरी’ चमकाने और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साधने का एक मंच बनकर रह गए हैं?
FONRWA के आगामी चुनावों की तिथि घोषणा के साथ ही शहर का राजनीतिक पारा चढ़ गया है। बीते दो बार के विजेता अध्यक्ष योगेंद्र शर्मा और सचिव के.के. जैन ने एक बार फिर अपनी दावेदारी पेश की है। रोचक तथ्य यह है कि विपक्षी खेमे से अभी तक कोई सक्षम चेहरा सामने नहीं आया है, जिससे उनके निर्विरोध चुने जाने की संभावना प्रबल दिख रही है। यह स्थिति अपने आप में कई अंतर्निहित समस्याओं और संगठन की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है।
विरोध की चुप्पी के पीछे छिपी कड़वी सच्चाई
विपक्षी दावेदारों की इस अनुपस्थिति के पीछे कई गंभीर कारण बताए जा रहे हैं। सेक्टर 61 की RWA पदाधिकारी राजीव चौधरी द्वारा दिए गए एक संदेश में इन कारणों को स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है। उनके अनुसार, “पिछले चुनाव 2024 में हुई धांधली और भ्रष्टाचार की हदों को पार होने के चलते सेक्टर 61 की RWA पदाधिकारियों ने यह निर्णय लिया है कि FONRWA के सब्सक्रिप्शन में अपने सेक्टर 61 के निवासियों की गाढ़ी कमाई का पैसा बर्बाद करने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि FONRWA द्वारा शहर की किसी भी RWA के सार्वजनिक हित में कोई कार्य करने में सक्षम नहीं है।”

हर जगह नोएडा वासियो को ही ट्वीट और पोस्ट के माध्यम से काम करवाने पड़ रहे है फोनरवा सिर्फ अथॉरिटी के द्वारा लगाए कार्यो का फीता काटने जाते है विधायक और सांसद के साथ बस यही काम किया है।
डॉ आश्रय गुप्ता , जिलाध्यक्ष- समाजवादी पार्टी
यह बयान FONRWA की कार्यप्रणाली पर सीधा हमला है। यह इस बात पर जोर देता है कि इन फेडरेशनों से यह उम्मीद करना एक “भ्रम” है कि वे किसी RWA को कोई वास्तविक सहायता प्रदान करेंगे। संदेश में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “जिनको ख्याली नेता बनना है, वो अपनी RWA का पैसा बर्बाद कर सकते हैं और एक बिकाऊ और भ्रष्ट नेता शहर को तैयार करके देने में मददगार हो सकते हैं।” सोशल मीडिया पर FONRWA के पक्ष में तैरते कुछ “बिकाऊ और भ्रष्ट RWA पदाधिकारियों” के संदेशों का जिक्र भी इस आरोप को और पुख्ता करता है, जिनसे यह सवाल पूछा जाता है कि FONRWA ने उनकी RWA के लिए वास्तव में क्या किया है। ये आरोप न केवल FONRWA की पारदर्शिता और जवाबदेही पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं, बल्कि रेजिडेंट्स के बीच इन संगठनों के प्रति गहरे अविश्वास को भी दर्शाते हैं।
एक ऐतिहासिक संदर्भ और वर्तमान विफलता
इन संगठनों के मूल उद्देश्य को समझने के लिए इतिहास में जाना जरूरी है। कई वर्ष पूर्व, नोएडा प्राधिकरण के तत्कालीन सीईओ के सामने एक operational चुनौती थी। अलग-अलग सेक्टरों के RWA अध्यक्षों के अलग-अलग दावों और मांगों से निपटना मुश्किल हो रहा था। एक एकल, समन्वित चेहरे की आवश्यकता महसूस की गई। इसी उद्देश्य से RWA के एक संयुक्त फेडरेशन – FONRWA के गठन की कल्पना की गई। प्राधिकरण ने सेक्टर 52 में एक लाइब्रेरी के लिए बने स्थल को भी FONRWA के कार्यालय के लिए आवंटित किया, ताकि निवासियों की समस्याओं पर एक मंच के माध्यम से संवाद किया जा सके।

सवाल यह है कि क्या FONRWA इस ऐतिहासिक उद्देश्य में सफल हो सकी? जमीनी हकीकत इसके ठीक उलट नजर आती है। FONRWA आज निवासियों और प्राधिकरण के बीच एक पारदर्शी, प्रभावी पुल के बजाय, एक और bureaucratic layer बनकर रह गया लगता है। इसकी भूमिका महज प्राधिकरण के अधिकारियों से ‘मिलने’ और ‘अटेंशन’ पाने तक सिमट कर रह गई है।
FONRWA से DDRWA तक: विखंडन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं
इस बीच, FONRWA के पूर्व अध्यक्ष एन.पी. सिंह द्वारा कई बार चुनाव हारने के बाद रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के ही एक अन्य संगठन, DDRWA (दिल्ली-एनसीआर रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन) का गठन, इस पूरे परिदृश्य को और जटिल बना देता है। यह स्थिति इस बात की ओर इशारा करती है कि इन चुनावों का उद्देश्य अब शहर के निवासियों के हितों का प्रतिनिधित्व करने से अधिक अपने-अपने संगठन में मजबूत होने और व्यक्तिगत प्रभाव स्थापित करने का हो गया है।
DDRWA के सदस्य खुले तौर पर सोशल मीडिया पर दावा कर रहे हैं कि उनका संगठन “बहुत अच्छा कार्य कर रहा है” और उन्हें अब किसी और संस्था में चुनाव लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाल ही में अपनी संस्था में सीनियर वाइस प्रेसिडेंट के पद पर मनोनीत हुए एक सदस्य का कहना है, “हमारी संस्था शहर की समस्याओं के लिए समर्पित है और हर पटल पर शहर की समस्या को उजागर करती है और निस्तारण के लिए अधिकारियों से लगातार मुलाकात करती रहती है।” वे यह भी दावा करते हैं कि DDRWA में सीनियर उपाध्यक्ष के पद पर रहकर वे अपने सेक्टर, अपने शहर और समाज की समस्याओं को उच्च अधिकारियों तक पहुंचाने में सक्षम हैं और उन्हें किसी अन्य संस्था में किसी पद की आवश्यकता नहीं है। इस दावे के साथ वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि उन्होंने पिछले चार वर्षों में कोई FONRWA चुनाव नहीं लड़ा है और न ही वे किसी और संस्था के आंतरिक मामलों में दखल देना चाहते हैं।
यह बयान भले ही DDRWA की अपनी प्रभावकारिता को दर्शाता हो, लेकिन यह रेजिडेंट्स वेलफेयर के समग्र उद्देश्य को कमजोर करता है। विभिन्न फेडरेशनों का गठन और ‘अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग’ की स्थिति नोएडा के निवासियों की आवाज़ को विभाजित करती है। जब रेजिडेंट्स की आवाज़ बंटी हुई होती है, तो प्राधिकरण या संबंधित अधिकारियों पर दबाव बनाने की उनकी क्षमता स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है।
क्या ये संगठन केवल फोटो-ऑप (Photo-op) और व्यक्तिगत राजनीतिक रसूख बढ़ाने का माध्यम बनकर रह गए हैं, या इनके पास वास्तव में शहर की बड़ी समस्याओं, जैसे बुनियादी ढांचा, सुरक्षा, स्वच्छता, नागरिक सेवाओं में सुधार, और पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई ठोस, समन्वित और प्रभावी कार्ययोजना है?
100 सरदारों का सुपर सरदार क्या है वाकई असरदार?
ऐसे में सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि एक ही तरह के, मात्र 100 RWA के ‘सरदार’ बनकर शहर में प्राधिकरण के अधिकारियों से मिलने या उनकी ‘अटेंशन’ पाने के अलावा इन संस्थाओं का वास्तविक औचित्य क्या है? आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो मुद्दा सिर्फ FONRWA या DDRWA के चुनाव का नहीं है। मुद्दा है शहरी प्रशासन और जनभागीदारी के एक मॉडल की विफलता का।
- प्रतिनिधित्व का संकट: FONRWA का दावा है कि यह 100 से अधिक RWA का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह प्रतिनिधित्व वास्तविक है या नाममात्र का? कितने आम निवासी FONRWA के office bearers के नाम जानते हैं? कितने लोगों ने कभी इसके चुनाव में वोट डाला है? यह संगठन अक्सर एक ‘ओल्ड बॉयज क्लब’ की तरह काम करता दिखता है, जहां सत्ता कुछ चुनिंदा लोगों के बीच ही circulates करती है।
- जवाबदेही का अभाव: एक स्थानीय RWA अपने सेक्टर के निवासियों के प्रति सीधे जवाबदेह होती है। लेकिन FONRWA जैसे बृहद संगठन की जवाबदेही किसके प्रति है? यह अक्सर एक ऐसी इकाई बन जाती है जो न तो आम निवासियों के प्रिए जवाबदेही महसूस करती है और न ही चुनाव आयोग जैसी किसी स्वतंत्र निगरानी संस्था के प्रति। इसी का नतीजा है भ्रष्टाचार और धांधली के आरोप।
- डिजिटल डिस्कनेक्ट: सूचना के बदलते दौर में, जहां निवासी सोशल मीडिया व्हाट्सएप्प ग्रुप्स और ई-मेल के जरिए सीधे प्राधिकरण के अधिकारियों से संपर्क कर सकते हैं, वहां एक बिचौलिए संगठन की भूमिका स्वतः ही संदेह के घेरे में आ जाती है। निवासी अब पूछ रहे हैं कि जब वे सीधे अपनी समस्या CESC, Noida Authority या पुलिस को टैग करके उठा सकते हैं, तो FONRWA की आवश्यकता exactly क्या है? क्या यह महज एक Formal Channel है जो काम धीमा करता है?
- संसाधनों का दुरुपयोग: छोटे RWAs से लिया जाने वाला सब्सक्रिप्शन शुल्क, जो अंततः निवासियों की जेब से ही जाता है, का उपयोग किस लिए हो रहा है? क्या इसका बैलेंस शीट और ऑडिट रिपोर्ट नियमित रूप से सार्वजनिक की जाती है? सेक्टर 61 के RWA के आरोप इशारा करते हैं कि यह पैसा संगठन चलाने और ‘नेतागिरी’ दिखाने में ही खर्च हो जाता है, न कि ठोस जनकल्याण के projects में।
निर्णय निवासियों के हाथ में
अंततः देखा जाए तो क्या FONRWA का चुनाव एक नौटंकी बनकर रह गया है जिसमें जनता की भूमिका मात्र एक स्पेक्टेटर की है। यह चुनाव अब FONRWA को मजबूत करने के लिए नहीं, बल्कि कुछ individuals की personal credibility और influence को बरकरार रखने के लिए लड़ा जा रहा है।
अंतिम सवाल यही है कि क्या डिजिटल, पारदर्शी और सीधे संवाद के इस युग में नोनॉएडा जैसे महानगर को वाकई एक ऐसे बिचौलिए संगठन की आवश्यकता है, जिसकी विश्वसनीयता और उपयोगिता दोनों पर गहरा संकट है? क्या यह मॉडल अब obsolete हो चुका है?
इस सवाल का जवाब FONRWA या DDRWA के office bearers के पास नहीं, बल्कि नोएडा के उन आम निवासियों और छोटे RWA पदाधिकारियों के पास है, जो अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे से इन संगठनों को fund करते हैं। उन्हें ही तय करना है कि क्या वे इस status quo को चुनौती देना चाहते हैं या एक ऐसी system को continue करना चाहते हैं जो अपने मूल उद्देश्य से भटक चुकी है।
निर्णय तो नोएडा प्राधिकरण के उन अधकारियो को भी करना है जो सीधे जुड़ाव के इस दौर में भी उन सगठनों कि भूमिका को प्रासंगिक बनाये हुए है जिसका निर्विरोध चुनाव इस system पर मुहर नहीं, बल्कि इसकी सबसे बड़ी failure की कहानी कहता है।



