आशु भटनागर । 2025 के अंतिम पखवाड़े में कुछ ही दिन शेष हैं, ऐसे में एनसीआर खबर ने इस वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर आधारित एक विशेष श्रृंखला शुरू की है। इसी क्रम में आज बात जिले की राजनीति की, जिले की राजनीति में राजनैतिक दलों में स्थानीय नेताओं कि उठापटक पर वर्ष भर चर्चाये होती रही, जिले प्रमुख दलों में पुरे वर्ष गुटबाजी चरम पर रही, इनके नेता अपने अपने नेताओं के जरिये सफलता भी पाए और विरोधियो को पटखनी भी दी। आज ऐसे 5 नेताओं पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्होंने तमाम विरोध के बाबजूद अपनी राजनीति के जरिये अपनी पहचान साबित की।
अभिषेक शर्मा की जिलाध्यक्षता : वरदान से मिला नेतृत्व कितना रहेगा सफल?
गौतम बुद्ध नगर में भाजपा के नए जिलाध्यक्ष अभिषेक शर्मा की नियुक्ति ने पार्टी संगठन में ऐसा ही नाम है , उनके चयन ने गहरे राजनीतिक सवाल भी खड़े किए हैं। दावा है कि डॉक्टर महेश शर्मा, जिले के लोकसभा सांसद और स्थानीय राजनीति में एक प्रभावशाली आकृति, के प्रचंड समर्थन के बल पर अभिषेक शर्मा को पद सौंपा गया है। इस नियुक्ति ने स्पष्ट कर दिया है: इस जिले में राजनीतिक अधिकार उसी का है, जो महेश शर्मा की राय में हो।
यह फैसला कई अनसुलझे समीकरणों के बीच आया। पूर्व जिलाध्यक्ष गजेंद्र मावी, गुर्जर समुदाय से होने के नाते जातीय संतुलन के दृष्टिकोण से विवादों में थे। दो बार गुर्जर नेता के बाद, गैर-गुर्जर या यहां तक कि दलित नेता बनाने की मांग तेज थी। लेकिन, राजनीति के गणित में योग्यता कभी-कभी प्रभावशाली समर्थन के आगे नतमस्तक हो जाती है।
पार्टी के कार्यकर्ताओं का दावा है कि सांसद जी ने अपने मन की तो कर ली किंतु संगठन में कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ दिया दावा किया जाता है कि अब तक तिलपता कार्यालय से चलने वाला संगठन अब कैलाश पर्वत जाकर वहां के निर्देशों के अनुसार चलता है, हालात ये है कि 6 महीने से अधिक समय होने के बावजूद जिले में आज तक संगठन का विस्तार नहीं हो पाया है। भाजपा में बीते 6 माह में संगठन की गतिविधियां अब कार्यालय से कम जिला अध्यक्ष के घर से अधिक संचालित होती हैं और कहा जाता है कि भाजपा की टीम अब जिला अध्यक्ष की एक खास मंडली में सिमट कर रह गई है पहली बार ऐसा भी हुआ कि भाजपा में अपने-अपने पदों पर दावेदारी कर रहे लोगों ने पार्टी कार्यालय आना ही छोड़ दिया और अगर आते भी रहे हैं तो कार्यक्रमों के लिए में अब ऊर्जा नहीं बची है

विजय भाटी और गजेंद्र मावी जैसे नामों ने 2022 और 2024 में चुनावी जीत की लकीर खींची थी। आगे की चुनौती अभिषेक शर्मा के सामने है— आने वाले पंचायत चुनाव और 2027 के चुनाव में जिला अध्यक्ष के समक्ष न सिर्फ कार्यकारिणी घोषित करने का दबाव है बल्कि उस कार्यकारणी के जरिए अगले वर्ष होने वाले चुनावो में वह सफलता भी अपेक्षित रहेगी
राजकुमार भाटी का दादरी में दम: चार बार हार के बावजूद किस नेता के सहारे प्रभाव नहीं होता कम?
गौतम बुध नगर की राजनीति में एक नाम लगातार चर्चा में बना हुआ है — समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजकुमार भाटी। सुरेंद्र सिंह नागर और नरेंद्र भाटी जैसे कद्दावर नेताओं के पार्टी छोड़ने के बाद पैदा हुए शून्य के बाद भाटी की प्रासंगिकता और बढ़ती जा रही है। चार बार विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद वह पार्टी में एक अटल स्तंभ बने हुए हैं।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक, इसकी एकमात्र कुंजी है — वरिष्ठ नेता उदय प्रताप सिंह का वरदहस्त। मुलायम सिंह यादव के राजनैतिक गुरु कहे जाने वाले उदय प्रताप सिंह वीटो पावर जैसा प्रभाव रखते हैं कि अखिलेश यादव तक उनके सामने झुक जाते हैं। 2022 के चुनाव में पार्टी के ही एक अन्य दावेदार की माने तो उनको टिकट मिल चुका था वह सिंबल लेने के लिए लखनऊ दरबार के बाहर खड़े थे किंतु राजकुमार भाटी माफ कीजिए उदय प्रताप सिंह का जादू एक बार फिर से चल गया दावेदार बाहर खड़े रहे और राजकुमार पार्टी टिकट लेकर आ गए ।
2027 के चुनाव की तैयारियां अभी से शुरू हो गई हैं और चर्चा है कि भाटी का टिकट लगभग पक्का हो चुका है। दो महीने पहले तक उनके खिलाफ आंतरिक दबाव था। कहा जा रहा था कि अखिलेश ने स्वयं कहा था — “राजकुमार अब कार्यकर्ताओं को चुनाव लड़ाएंगे”। इसके जवाब में भाटी ने सोशल मीडिया पर लिखा — “उस्तरे जिन पर चले हैं, वह हमारे ही गले हैं।” और…… फिर वही हुआ उदय प्रताप सिंह के चलते कहा जा रहहि कि एक बार फिर उनका जादू चल गया है।
चर्चा तो ये भी है कि उनको दादरी से हटाने के लिए पार्टी के ही कुछ नेता उदय प्रताप सिंह तक ये सन्देश पहुंचा रहे है कि इनको राज्यसभा भेजना चाहिए ताकि वो पार्टी कि बात वहां रख सके।
लेकिन सवाल यह है कि क्या एक चार बार पराजित नेता के नेतृत्व में पार्टी दादरी विधानसभा जीत पाएगी? क्या अखिलेश यादव वास्तविक जनसमर्थन के बजाय केवल खेमेबाजी और आंतरिक संतुलन के चलते फैसले ले रहे हैं? दादरी में जनता के बीच भाटी का प्रभाव अभी तक साबित नहीं हुआ। यदि 2027 के लिए टिकट उन्हें ही मिलता है, तो यह नहीं लगता कि यह सापेक्षिक विजय होगी — बल्कि सपा के चुनावी भविष्य के लिए एक रणनीतिक हार हो सकती है।
दीपक चोटी वाला: कांग्रेस की जिले में जीवनरेखा या वर्चस्व का प्रतीक?
लोकतंत्र में व्यक्तित्व केंद्रित नेतृत्व से निकलकर संगठनात्मक मजबूती की ओर बढ़ना ही समय की मांग है — लेकिन उत्तर प्रदेश के एक जिले में कांग्रेस का संगठनात्मक संकट एक अकेले नाम पर टिका दिख रहा है: दीपक चोटी वाला।
जिले में कांग्रेस का अस्तित्व अब सिर्फ दीपक चोटी वाला के इर्द-गिर्द घूम रहा है। उन्हें फिर से जिला अध्यक्ष बनाए जाने के पीछे धीरज गुर्जर और विदित चौधरी की प्रभावशाली भूमिका सामने आई है। माना जा रहा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा के करीबी इन नेताओं ने न केवल जनभावनाओं को नजरअंदाज करते हुए दीपक को बचाए रखा, बल्कि पार्टी संगठन को उनके हाथों में सौंपने का फैसला किया।
हालांकि, यह निर्णय पार्टी के भीतर विवाद का केंद्र भी बना हुआ है। स्थानीय कार्यकर्ता एक नए युवा चेहरे के उदय की उम्मीद लिए बैठे थे, खासकर जब पार्टी ने हाल ही में कई जिला इकाइयों में बदलाव किए। लेकिन फिर भी, दीपक को फिर से जिम्मेदारी सौंपे जाने से संकेत मिलते हैं कि पार्टी के स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता कि कमी के साथ साथ सक्रिय नेतृत्व का अभाव है।
दीपक चोटी वाला अब तक जिले में कांग्रेस को जीवित रखने का श्रेय ले रहे हैं। आंदोलनों में उनकी उपस्थिति, सोशल मीडिया पर उनकी दृश्यता और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल उन्हें एक जीवंत चेहरा बनाता है। लेकिन सवाल यह उठता है: क्या पार्टी का भविष्य एक व्यक्ति पर भरोसा करके बन सकता है?
यह भी देखना होगा कि क्या दीपक चोटी वाला अगले विधानसभा चुनाव में दादरी सीट से चुनाव लड़ेंगे। अगर हां, तो जिला अध्यक्ष के तौर पर उनकी छवि न केवल संगठनात्मक, बल्कि चुनावी मोर्चे पर भी बदलेगी।
अंततः, जहां दीपक की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, वहीं कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि स्थायी जीवन के लिए संगठन में लोकतंत्र और युवा सशक्तिकरण अनिवार्य है। क्या दीपक एक अस्थायी समाधान हैं, या भविष्य के निर्माण का हिस्सा? यह 2027 के विधानसभा चुनाव तय करेंगे।
महेश चौहान: नोएडा महानगर अध्यक्ष पद की राजनीतिक गणित में ग्रामीण पृष्ठभूमि की जीत
महेश चौहान के नाम पर भाजपा नोएडा महानगर अध्यक्ष पद की घोषणा न केवल एक संगठनात्मक नियुक्ति है, बल्कि इसमें पार्टी की राजनीतिक गणित और सामाजिक समीकरण की प्राथमिकताएं भी झलकती हैं। जिले में 80% मतदान शहरी आबादी के हाथ में होने के बावजूद भाजपा ने फिर से ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेता पर भरोसा जताया है, जो नगरीय राजनीति के साथ एक बहस छेड़ रहा है।
आरंभ में महेश चौहान अध्यक्ष पद की दौड़ में प्रमुख दावेदार नहीं लग रहे थे। चर्चाओं में पंजाबी शहरी समाज से आने वाले संजय बाली, महिला नेतृत्व के उम्मीदवार डिंपल आनंद या दलित चेहरा गणेश जाटव के नाम गूंज रहे थे। यहां तक कि मनोज गुप्ता भी अपने पिछले कार्यकाल के आधार पर दोबारा अध्यक्ष बनने की उम्मीद लिए खड़े थे। मगर अंतिम फैसला पंकज सिंह, भाजपा विधायक के आशीर्वाद के साथ आया — एक संकेत कि संगठन के अंदर अब भी ‘नेता का वरदहस्त’ जनभावना से ज्यादा ताकतवर है।
इस नियुक्ति के पीछे एक राजनीतिक समीकरण भी स्पष्ट है। जब जिला अध्यक्ष पद पर सांसद डा महेश शर्मा के कारण ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि अभिषेक शर्मा को आगे किया गया, तो नोएडा में ठाकुर समाज के चेहरे की बात उठी। इस संतुलन को बनाए रखने में ग्रामीण प्रश्त्र्भूमि से आने वाले महेश चौहान, जो एक लंबे समय से कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय रहे हैं, सही फिट बैठ गये। डॉ. महेश शर्मा की ओर से इस नाम पर कोई आपत्ति न उठाना भी इस फैसले की मज़बूरी को दर्शाता है।
हालांकि, पार्टी के कार्यकर्ताओं में असंतोष की चर्चाएं भी सतह पर हैं। कहा जा रहा है कि नोएडा महानगर में ‘कमल का फूल’ ही चलता है — संगठन कमजोर है और नेता का चेहरा अक्सर महत्वहीन बन जाता है। ऐसे में महेश चौहान के सामने चुनौती केवल विकास योजनाओं को आगे बढ़ाने की नहीं, बल्कि पार्टी आधार को मजबूत करने और शहरी कार्यकर्ताओं का विश्वास जीतने की भी है।
इस वर्ष, भाजपा की स्थानीय मजबूती के लिए महेश चौहान की भूमिका निर्णायक होगी। सवाल यह है कि क्या वे ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेता होते हुए भी नोएडा के तेजी से बदलते शहरी परिदृश्य को समझ पाएंगे?
नोएडा महानगर अध्यक्ष आश्रय गुप्ता के सामने बढ़ते प्रश्न
ऐसा नहीं है कि फेवरेटीज्म सिर्फ भाजपा में ही चल रहा है समाजवादी पार्टी में नोएडा महानगर अध्यक्ष के पद पर आश्रय गुप्ता को को लेकर यही असंतोष रहा है। यह असंतोष केवल भाजपा के भीतर देखी जाने वाली पक्षपातपूर्ण नीति को ही नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी के भी अंदरूनी समीकरणों को उजागर करता है। 2025 में भी आश्रय गुप्ताको हटाये जाने कोलेकर तामाम चर्चाये हुए पर वो पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव के वरदहस्त के कारण टिके हुए है ।
नोएडा में समाजवादी पार्टी की राजनीति को समझे तो जिस शहरी समाज का वास्ता देकर आश्रय गुप्ता को आगे किया गया उससे आने वाले उनके वैश्य वर्ग के कई प्रभावशाली नेता आश्रय गुप्ता को अपना नहीं मानते। वे नोट करते हैं कि गुप्ता के कार्यक्रमों में वैश्य समुदाय की सहभागिता न्यूनतम रहती है, जबकि यादव व गुर्जर वर्ग के नेताओं की उपस्थिति अधिक दिखती है। इस पर गुप्ता के समीपस्थ कार्यकर्ता ने कहा, “हमारा लक्ष्य शहरी मतदाता वर्ग को जोड़ना है; किसी एक समुदाय को बाहर नहीं किया जा रहा।” फिर भी, समुदायिक ध्रुवीकरण को कम नहीं माना जा रहा।
बीते लोकसभा चुनाव में नोएडा में एसपी के उम्मीदवार डॉक्टर महेंद्र नागर ने आश्रय गुप्ता के तहत बूथ‑मैनेजमेंट में “भ्रष्टाचार” के आरोप लगाए। उनके अनुसार, बूथों पर कर्मचारियों के नाम पर पैसे ले‑ले कर मतदान को प्रभावित किया गया, जबकि वास्तविक कार्यकर्ता मौजूद नहीं थे। इन आरोपों की सत्यता अभी तक स्पष्ट नहीं हुई, परंतु इस मुद्दे ने गुप्ता के प्रति भरोसे को और धूमिल कर दिया।
समाजवादी पार्टी के सूत्र कहते हैं कि यदि 2027 के चुनाव में पार्टी को कोई बड़े चेहरा नहीं मिला, तो आश्रय गुप्ता को विधानसभा चुनाव में प्रमुख उम्मीदवार बनाया जा सकता है। ऐसी चर्चाये पार्टी के भीतर योग्यता पर नेता के आशीर्वाद और “एक ही चेहरा” पर निर्भरता को दर्शाती है, जो कई समीक्षकों के अनुसार दीर्घकालिक रणनीति में खामियां पैदा कर सकती है। आश्रय गुप्ता की स्थिति को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि अब पार्टी को व्यापक संवाद और पारदर्शी निर्णय प्रक्रिया अपनानी होगी, जिससे वह अपने शहरी वोट‑बैंक को केन्द्रित कर भाजपा को हरा सके। पार्टी कार्यकर्ताओं की अपेक्षा है कि भविष्य में राजनीति केवल व्यक्तिगत भरोसे पर नहीं, बल्कि सभी वर्गों के समावेशी विकास पर आधारित हो।



