राजेश बैरागी । कल नोएडा में एक निकटतम मित्र का निधन हो गया। आयु बहुत नहीं थी। यही कोई साठ बरस। ज्येष्ठ पुत्र ने उन्हें मुखाग्नि दी। उससे पहले वह अपने पिता की मृत देह के पैरों पर काफी देर तक सिर रखकर बैठा रहा। उसके अपने पिता से संबंध सामान्य नहीं थे।सरल भाषा में कहें तो दोनों के रिश्तों में कड़वाहट थी।
ज्येष्ठ पुत्र एक ही मकान के भूतल पर रहता है और माता पिता,छोटा अविवाहित भाई और बहन प्रथम तल पर। रिश्ते पहले भी तल्ख थे, उसके ब्याह के बाद रिश्तों में और भी गिरावट आई। पुत्रवधू ने इस स्थिति का अनुकरण किया या लाभ उठाया, यह कहना मुश्किल है परंतु एक ही मकान में ऊपर नीचे रहने वाले माता-पिता और पुत्र के परिवारों में मीलों की दूरियां बन गईं। दोनों के बीच बातचीत नहीं थी। त्योहारों के आयोजन भी अलग-अलग होते थे।
परंतु हिंदू धर्म की मान्यताएं इतनी सशक्त हैं कि दूरियां होने के बावजूद पिता को मुखाग्नि देने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र का ही रहता है। उसने मुखाग्नि दी। उससे पहले मृत पिता के चरणों पर सिर रखकर बैठा रहा। मैं इस दृश्य का साक्षी था। उसकी आंखों से निकल रहे आंसुओं ने पिता के चरणों को भिगो दिया। क्या उसने अपने व्यवहार के लिए मृत पिता से क्षमा मांगी होगी?
मुझे अनुभव हुआ कि उसने अपने पिता से कहा, पिताजी मैं आपसे बहुत प्यार करता था।’ हालांकि यह कहने में उसने बहुत देर कर दी और यह सुनने के लिए तरस गए पिता के कान पहले ही सदा के लिए संज्ञा शून्य हो चुके थे।