किसी को खाने पीने का सामान देने से पहले उसमें खुद थूक देना कितना बड़ा धर्म का काम हो सकता है ? आखिर ऐसी कौन सी धार्मिक प्रतिबद्धता और मजबूरी हो सकती है कि लोग किसी को खाने पीने का सामान देने से पहले उसमें थूक दें । विविध धर्मो वाले देश में इस पर चर्चा करने से पहले इस देश की जनसंख्या और उनकी आदतों को समझना आवश्यक है।
महज 50 साल पहले लोग मुसलमानो के घर का पानी पीना भी धर्म भ्रष्ट हो जाने के बराबर समझते थे। छुआ छूत समझे जाने वाला व्यवहार संभवत: यह खाने-पीने के बड़े अंतर के कारण समाज में होता था या फिर इस्लामी आक्रमणकर्ताओं ने हिंदुओं के साथ जिस तरीके के अन्याय किया, आजादी के समय जिस तरीके से मुसलमान ने पाकिस्तान से हिंदुओं के साथ लूटपाट और दुराचार की इंतहा की, उसका एक प्रतिकार के रूप में ऐसा भी था ।
स्वतंत्रता के 30 वर्ष बाद 80 के दशक में लोग बदलने लगे थे । 90 के दशक में उदारीकरण के बाद सामाजिक परिवर्तन हुए और हिंदुओं में बदलाव आया और उन्होंने अपने नियमों में कुछ शिथिलता दी । जिसके कारण अपने आप में एक अलग अलग पड़ी दूसरी बड़ी आबादी को मुख्य धारा में आते देखा गया। किंतु बीते 30 वर्षों में जहां एक और बहुसंख्यक हिंदू समाज अपने लिबरल और धर्मनिरपेक्ष रूप को निभाते रहा भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुस्लिम समाज के लोगों की तरफ से लगातार ऐसे संकेत दिए जाते रहे जिससे इस रिश्ते को निभाना मुश्किल होता गया।
इसका आरंभ हलाल से हुआ, मुसलमानों ने लगभग हर चीज में हलाल का प्रमाण पत्र मांगना शुरू कर दिया कभी मांस तक सीमित रहा हलाल बाद में कपड़ों और दूध तक पर आ गया । यह दरअसल इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी का संगठित कट्टरपन का बड़ा उदाहरण था किंतु इससे भी बहुसंख्यक आबादी को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा उन्होंने मुसलमानों के हलाल पर भी बहुत ज्यादा आपत्ति नहीं जताई।
किंतु बीते काफी समय से खाने में पीने में मुसलमान द्वारा दिए जाने से पहले थूकने की तमाम घटनाएं सामने आने के बाद एक बार फिर से इस देश का सामाजिक धर्मनिरपेक्ष फैब्रिक टूटने को तैयार है । रविवार को नोएडा में एक गन्ने के रस वाले मुस्लिम वेंडर ने रस देते समय उससे पहले उसमें थूक कर दिया । आरोप है की शिकायत करने पर वह लड़ने भी लगा ।
ऐसे में बड़ा प्रश्न यह है कि क्या मुस्लिम आबादी इस देश में पोलराइजेशन के साथ-साथ एक बड़े गृह युद्ध और समाजिक विघटन की तैयारी कर रही है? क्या इस देश की बहुसंख्यक आबादी को एक बार फिर से 50 साल पीछे इस खान-पान की आदत को अपनाना चाहिए जिसमें वह पहले सुनिश्चित करता था की जिससे हम ले रहे हैं वह किस धर्म का है ? और अगर ऐसा होता है तो यह छद्म धर्मनिरपेक्ष वादी ताकते क्या उसको फिर से स्वीकार कर पाएंगी या फिर उनका यही एजेंडा है । प्रश्न मुस्लिम समाज में फैली इस विकृति को हटाने या बदलने के लिए उन मुस्लिम बुद्धिजीवियों से भी है जो सामाजिक सद्भाव चाहते है या फिर वो इसको गलत समझते ही नही है यह बड़ा प्रश्न है।