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ललित निबंध : नाना हुए नानू, जीजा हुए जीजू, दादा हुए दादू बस एक फूफा ही है जो हमेशा फूफा हैं और फूफा ही रहेगा

डॉ केके अस्थाना। समय के साथ नाना नानू हो गए। जीजा जीजू हो गए. बाबा भी पहले दादा हुए फिर दादा से दादू हो गए। मामा तो पहले से ही काफी आबादी के लिए मामू थे। बस एक फूफा ही है, जो आज भी पुरानी परम्पराओं को निभाते हुए पहले की तरह शान से फूफा हैं। आगे भी फूफा ही रहेगा।

उसके फूफू होने का कोई स्कोप भी नहीं है, क्योंकि कई जगहों पर फूफा की पत्नी यानी बुआ को फूफू भी कहा जाता है। अब मियां बीबी दोनों तो फूफू हो नहीं सकते। इसलिए फूफा हमेशा फूफा ही रहेगा !

जो लोग मामा को मामू कहते हैं वह बुआ को फूफी और फूफा को फूफा ही कहते हैं. वह भी फूफा को फूफू नहीं कह सकते क्योंकि सुनने में फूफू स्त्रीलिंग लगता है. इसका मतलब यह हुआ कि चाहे जो धर्म हो, भारत में बुआ का पति फूफा ही कहा जाता है. फूफा जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर सिर्फ फूफा होता है. मौक़ा पड़ने पर फूफा जैसा व्यवहार भी करता है।

समाज ने कभी फूफा को समझने की कोशिश नहीं की. साहित्य ने भी फूफा के साथ न्याय नहीं किया. जीजा साली पर लुग्दी साहित्य से लेकर मुख्य धारा साहित्य तक जाने कितना लिखा गया. स्त्री विमर्श और दलित विमर्श आदि पर जाने कितने ग्रन्थ लिख डाले गए. पर फूफा जैसे हैरान परेशान व्यक्ति पर किसी लेखक या कवि ने एक लाइन भी नहीं लिखी होगी. किसी दार्शनिक ने फूफा के ‘फूफत्व’ को समझने का प्रयास नहीं किया. आखिर वह क्या बात है जो फूफा को फूफा बनाती है. आइये देखते हैं।

फूफा नाम के संबोधन की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोगों का मानना है कि किसी समय एक जीजा की फूं फां देख कर उसके साले के बच्चों ने उसका नाम ही फूं फां रख दिया, उनकी देखा देखी और बच्चों ने भी अपने पिताजी के जीजाओं को इसी तरह फूं फां कहना शुरू कर दिया। कालांतर में इस रिश्ते का नाम फूं फां ही पड़ गया जो कि बाद में घिसते घिसते फूफा हो गया. दूसरी विचारधारा वालों का मानना है कि फूफा नाम का संबोधन पहले आया और उनके जैसे नकचढ़े व्यवहार को फूं फां कहा जाने लगा।

वैसे कोई फूफा जन्म से ही फूफा नहीं होता. बल्कि मैं तो कहूँगा कि वह वास्तव में वरिष्ठ जीजा होता है, फूफा होता ही नहीं है। यह तो उसका साला होता है जो अपने जीजा को फूफा बना देता है। जीजा बेचारा जीजा के रूप में ख़ुशी ख़ुशी ससुराल जा रहा होता है। एक दिन पता चलता है कि साला खुद जीजा बन बैठा है। अभी वह इस इस स्थिति से तालमेल बिठा ही रहा होता है कि खबर आती है कि साला पापा बन गया. साले के पापा बनते ही जीजा फूफा बन जाता है। इस पर उसका अपना कोई बस नहीं होता. वह कोई ख़ुशी ख़ुशी फूफा थोड़े ही बनता है।

जिन्हें हम फूफाओं की समस्याएं समझते हैं वह वास्तव में वरिष्ठ जीजाओं की समस्याएं हैं। जीजा के वरिष्ठ जीजा होने तक उसकी ससुराली दुनिया पूरी तरह बदल चुकी होती है। सालियों और पत्नी की सहेलियों की शादी हो चुकी होती है। साली–आधी घरवाली किसी की पूरी घरवाली बन चुकी होती है।

सालियाँ और सलहजें जो उसके जूनियर जीजा रहते चहकती फुदकती रहती थीं, अब घुटने के दर्द से कराहती और गठिया के कारण मटक कर चलती नजर आती हैं। बेचारा वरिष्ठ जीजा पुराने दिनों याद में गुमसुम बैठा होता है। और लोग ताने मारते हैं कि वह फूफा बने बैठे हैं। अक्सर उसके खुद के घुटनों में भी तो दर्द हो रहा होता है. बेचारा मन मसोसे बैठा होता है। जनता समझती है कि मुंह फुलाए बैठे हैं।

वैसे वरिष्ठ जीजा या फूफा बनने में समय तो लगता ही है। इस बीच उसे हाई ब्लडप्रेशर या डायबिटीज या कभी कभी दोनों ही हो चुके होते हैं। वजन तो हर हाल में बढ़ ही चुका होता है. मैंने आज तक कोई ऐसा फूफा नहीं देखा जो अपना बढ़ा हुआ पेट यानी तोंद कम करने का असफल प्रयास न कर रहा हो. ऐसी हालत में सास तक नहीं पूछती है कि ‘भैया क्या खाओगे?’ अपने आप लौकी, तोरई या ऐसी ही कोई सुपाच्य सी सब्जी और रोटी बना कर रख देती हैं। फूफा हो चुके जीजा को अक्सर ऐसे ही व्यंजन खाने को मिलते हैं. फिर कहा जाता है कि फूफा फूफा बने बैठे हैं।

फूफा की पत्नियाँ भी बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे नहीं हटती हैं। अपनी बात को बढ़ा चढ़ा कर कहने की आदत के चलते उनकी डायबिटीज का भी मायके में ऐसा वर्णन करती हैं कि उस बेचारे को ससुराल में लौकी के अलावा कुछ खाने को मिल ही नहीं सकता है। साथ में ससुर जी की मुफ्त सलाह ऊपर से मिलती है।

‘इस उम्र में खाने पीने और एक्सरसाइज पर विशेष ध्यान देना चाहिए’ यह कह कर उसे बढती उम्र का अहसास तो करा ही दिया जाता है। साथ ही एक्सरसाइज की बात करके उसे बेडौल होने का अहसास और कराया जाता है। इन बातों से डिप्रेशन में बैठे अधेड़ को ताने मारे जाते हैं. कहा जाता है कि फूफा बने बैठे हैं।

‘जीजा जी कौन सी मिठाई पसंद है’ के स्थान पर सालियाँ ‘डॉक्टर ने ब्लडप्रेशर की कौन सी दवा दी है’ पूछने लगती हैं। ‘जीजाजी कहीं घुमाने ले चलिए’ सुनने को तरसते कानों को ‘ज्यादा बाहर मत जाया करिए’ के मधुर वचन सुनने को मिलने पर अच्छा खासा आदमी फूफा बन जाए। एक बार बेचारे के साथ पुराने वाले जीजाजी जैसा व्यवहार तो करिए फिर देखिये कौन भला फूफा बन कर बैठ सकता है।

फूफा के उजले पक्ष पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। सत्यनारायण की कथा के बाद प्रसाद में मिली पंजीरी को मुंह में भर के फूफा बोलने में जो आनंद है वह मामा, चाचा या मौसा बोलने में भला कहाँ आ सकता है ! इतिहास गवाह है कि सत्यनारायण भगवान् की पूजा के बाद सारे बच्चे मुंह में पंजीरी भर के सबसे ज्यादा फूफा को ही पुकारते हैं। ऐसे फूफा को आप फूफा होने का ताना मारते हैं. बड़ी गलत बात है !

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