राजेश बैरागी । मुझे पक्का भरोसा था कि नोएडा ग्रेटर नोएडा प्राधिकरणों और यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण क्षेत्र में कई स्थानों पर धरना प्रदर्शन कर रहे कथित किसान नेता संसद घेरने के लिए दिल्ली नहीं जा पाएंगे। जिस कार्यक्रम की असफलता निश्चित हो, उसके नेताओं का अपने घरों में पुलिस द्वारा नजरबंद कर दिया जाना सबसे सफल उपाय है।
इसके बावजूद किसानों को दिल्ली जाने से रोकने में कल गुरुवार को दिनभर गौतमबुद्धनगर कमिश्नरेट पुलिस को बहुत परिश्रम करना पड़ा। इसका सर्वाधिक नुकसान उन लोगों को हुआ जो सड़क मार्ग से नोएडा दिल्ली के बीच आ व जा रहे थे। दिल्ली जाने में नाकाम रहने (जो तय था) पर किसान नेताओं ने पुलिस आयुक्त श्रीमती लक्ष्मी सिंह से वार्ता करना स्वीकार किया।
देर रात तक चली वार्ता का परिणाम यह निकला कि एक उच्चस्तरीय समिति के साथ किसानों की वार्ता कराई जाएगी जिसमें उद्योग मंत्री, अपर मुख्य सचिव, तीनों प्राधिकरणों के मुख्य कार्यपालक अधिकारी और स्थानीय सांसद व विधायक के साथ साथ पुलिस आयुक्त महोदया भी शामिल होंगी।
कल ही जेवर विधायक ठाकुर धीरेन्द्र सिंह ने विधानसभा में गौतमबुद्धनगर में आंदोलनरत किसानों के मुद्दों को हल करने के लिए उच्चस्तरीय समिति बनाने की मांग सरकार से की थी। क्या इन दोनों घटनाओं में कोई अंतर्संबंध है? यह प्रश्न बाद को छोड़ते हैं।
मैं पुलिस आयुक्त महोदया द्वारा किसानों के साथ हुई वार्ता में तय उच्चस्तरीय समिति के स्वरूप को लेकर थोड़ा असमंजस में हूं। इस समिति में गौतमबुद्धनगर के जिलाधिकारी का नाम नहीं है। जबकि जिले के शीर्ष अधिकारी होने के अलावा आंदोलन करने वाले किसानों को साधने में उन्होंने हमेशा अपनी भूमिका पूरी जिम्मेदारी से निभाई है। क्या पुलिस कमिश्नरेट बनने से जिलाधिकारी की भूमिका को सीमित या उपेक्षित किया जा रहा है।
मुझे इस अवसर पर पड़ोसी देश पाकिस्तान का उदाहरण प्रासंगिक लगता है। वहां सरकार के किसी भी फैसले में सेना अवश्य शामिल रहती है।कल ही वहां हुए आम चुनाव के लिए सेना ने ही देशवासियों को बधाई दी है। हालांकि पुलिस आयुक्त जनपद में नियुक्त सभी अधिकारियों से वरिष्ठ हैं परंतु जिलाधिकारी को अनदेखा कैसे किया जा सकता है।