राजेश बैरागी : नब्बे के दशक में अपनी उपेक्षा से आहत एक विधायक ने नोएडा प्राधिकरण के मुख्य कार्यपालक अधिकारी पर दो हिंदी समाचार पत्रों के पत्रकारों को महत्व न देने का दबाव बनाया। तब मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने विधायक के दबाव को स्पष्ट तौर पर नकार दिया था।
क्या बीते तीन दशकों में नोएडा, ग्रेटर नोएडा की पत्रकारिता में कोई अंतर आया है? मैं देखता हूं कि चापलूसी तब भी थी जो आज भी है। अधिकारियों की मुंह देखी प्रशंसा करने वाले पत्रकार तब भी थे और आज भी हैं।अधिकारियों को राम राज्य स्थापित करने वाला घोषित करने की होड़ और बढ़ गई है। अधिकारियों से निकटता बढ़ाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले पत्रकारों की संख्या में दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है। तो क्या पत्रकारों ने अपनी गरिमा, नैतिकता, एकता और कर्तव्य निष्ठा को ताक पर रख दिया है?
कहने की आवश्यकता नहीं कि सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को सड़कछाप बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह इतनी बड़ी भूमिका लिखने का कारण नोएडा मीडिया क्लब की वर्तमान दुर्दशा है जहां चुनाव को लेकर पत्रकार जिला प्रशासन और पुलिस के समक्ष नतमस्तक होकर घूम रहे हैं।
इस मीडिया क्लब के वर्षों तक अध्यक्ष रहे पंकज पराशर को लगभग एक महीने पहले गौतमबुद्धनगर कमिश्नरेट पुलिस ने अवैध कार्यों में लिप्त होने के आरोप में गैंगस्टर समेत गंभीर धाराओं में जेल भेजा है।
क्या पत्रकार इस पुलिस कार्रवाई से भयभीत हो गए हैं? यदि ऐसा है तो उन्हें पत्रकार कहलाने का क्या अधिकार है। यदि वे पत्रकार और अपराधी में अंतर कर पाने में असमर्थ हैं तो उन्हें पत्रकार क्यों होना चाहिए। पत्रकार को निडर होना चाहिए। ऐसा केवल तब हो सकता है जब पत्रकार स्वयं किसी को डराता न हो। यह पेशा सच्चाई उजागर करने से संबंधित है, सच्चाई उजागर करने की धमकी देने से नहीं।
यह पेशा किसी का प्रचार करने का भी नहीं है। ऐसा करने वाले लोग पत्रकारिता का दुरुपयोग करते हैं।उनका भयभीत होना जायज है परंतु पत्रकार होना जायज नहीं है। क्या नोएडा मीडिया क्लब पर कुछ नाजायज पत्रकार कब्जा करना चाहते हैं?
यदि ऐसा है तो मीडिया क्लब से एक और पंकज पराशर के जन्म लेने की संभावना से कैसे बचा जा सकता है। फिर ऐसे मीडिया क्लबों की आवश्यकता ही क्या है जहां पत्रकारों और पत्रकारिता की रक्षा के अतिरिक्त सबकुछ होता है।