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संपादकीय : इंटरनेशनल किडनी कांड के बाद दिल्ली, नोएडा या गाजियाबाद के कारपोरेट अस्पतालों के बहाने उठते प्रश्न!

दिल्ली एनसीआर में बांग्लादेश से संचालित इंटरनेशनल किडनी कांड के प्रकरण में नोएडा के अपोलो और यथार्थ अस्पताल (Yatharth Hospital ) का नाम सामने आने के बाद क्या धरती पर भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर और इन भगवानो के मंदिर यानी बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों पर विश्वास खत्म होता जा रहा है।

आमतौर पर छोटे अस्पतालों में लाइसेंस और बाकी चीजों को लेकर तमाम तरीके के आरोप लगाते रहे हैं और ऐसे में हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार इलाज के लिए इन बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में इस उम्मीद के साथ जाने की सोचता है कि उसको न सिर्फ अच्छा न्याय मिलेगा बल्कि वहां डॉक्टर से संबंधित एथिक्स और मर्यादाएं भी पूरी निष्ठा के साथ निभाई जाएंगे।

दिल्ली नोएडा जैसे महानगरों में स्थिति आज यह है कि अगर आप किसी भी बीमारी के चलते एक बार गलती से बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में पहुंच जाते हैं तो आपके जीवन भर की कमाई लुटाए बिना वापस आ जाना अब भगवान नहीं यह धरती के भगवान सुनिश्चित करते हैं

इस पूरे प्रकरण में आगे जांच में अस्पताल या डॉक्टर में पूरी तरीके से कौन दोषी साहब साबित होगा, कौन निर्दोष साबित होगा वह आगे की बात है किंतु इस भाग की दौड़ती जिंदगी में क्या इन बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों और भगवान के भेष में हैवान होते जा रहे डॉक्टर पर कोई फर्क पड़ेगा।

यह बड़ा प्रश्न यह इसलिए भी है कि इन बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में ओपीडी में बैठते या ऑपरेशन करते हुए डॉक्टर ने अपने भी क्लीनिक खोले हुए है और दोनों ही जगह सबका लक्ष्य अस्पतालों में बड़ी-बड़ी जांच करवा कर मरीज का दोहन करना है ।

यह दोहन तब और बड़ा हो जाता है जब डॉक्टर और अस्पताल दोनों को यह पता चल जाता है कि मरीज के पास मेडिकल इंश्योरेंस है मेडिकल इंश्योरेंस होने की दशा में मरीज को फायदा होने की जगह दोनों की कोशिश मरीज के इंश्योरेंस कवर को पूरी तरीके से निचोड़ लेना होता है कई मामलों में यह भी देखा गया कि अगर मरीज के इंश्योरेंस कंपनी ने किसी तरीके से पूरे क्लेम का कुछ हिस्सा डिक्लाइन कर दिया है तो उसे पैसे को बाद में मरीज से कैश में वसूला जाता है। दुखद तथ्य यह है कि ऐसी वसूली के बावजूद यह सारे बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल शहर में RWA और  AOA के अधिकारियों को लंच पर बुलाकर उनसे उनके यहां कैंप या प्रमोशन करने के लिए उनके नियमों को तोड़ने की सिफारिश भी करते हैं।

नोएडा के कई बड़े अस्पतालों में वीपी मार्केटिंग की सेवा दे रहे पदाधिकारी ने एनसीआर खबर को बताया कि आज से 20 साल पहले अस्पताल अपने कार्यशैली के कारण दूर-दूर तक जाने जाते थे किंतु आज अस्पताल विशुद्ध तौर पर मार्केटिंग और पर के जरिए टारगेट तय करने लगे है। चिकित्सा अब सेवा की जगह लाभ कमाने का साधन बन गई है आज के दौर में हर अस्पताल के 50 से ज्यादा होर्डिंग आपके शहर में लगे मिल जाएंगे इसके साथ ही हर बड़े अखबार और टेलीविजन पर इनके विज्ञापन चलते मिल जाएंगे। सरकार अगर कॉर्पोरेट अस्पतालों के विज्ञापन या प्रचार को दवाइयां की तरह प्रतिबंधित कर दे तो इस क्षेत्र में सुधार की एक संभावना बन सकती है।

ऐसे में अस्पतालों के इस बड़े खेल में फंसने के बावजूद एक आम आदमी के पास चारा क्या है इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि महज कुछ हफ्ते पहले ही दिल्ली के ही एक अस्पताल में एक आईएएस ऑफिसर की मृत्यु पर उसके परिवार ने तमाम आरोप लगाए और अस्पताल का कुछ नहीं हुआ । लोगों के यहां तक दावे हैं कि अस्पतालों के बड़े तंत्र के आगे उम्मीद की किरण दिखाई देने वाले बड़े-बड़े प्राधिकरण के अधिकारी जिला अधिकारी और पुलिस के अधिकारी तक दंडवत या फिर मजबूर नजर आते हैं।

बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों के सिंडिकेट के दबाव से पुलिस, प्रशासन और प्राधिकरण की मजबूरी को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि आज कल हर बड़े अस्पताल में के बेसमेंट में पार्किंग की जगह ओपीडी बना दी गई और इन पार्किंग क्षेत्र में ओपीडी बनाने के लिए बाकायदा प्राधिकरण से सहमति बनवा ली गई है । यह सहमति पैसे से है, दबाव से हैं या फिर किसी अन्य कारण से है यह अलग मुद्दा है। मुद्दा यह भी है कि सब कुछ जानने के बावजूद प्राधिकरण पुलिस और प्रशासन इस सबसे आंखें क्यों मूंद लेता है ?
या फिर बुलडोजर वाले बाबा की सरकार का इकबाल यहां आकर खत्म हो जाता है ?

ऐसे में बड़ा प्रश्न यही है कि सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा और निजी अस्पतालों कॉर्पोरेट अस्पतालों के बढ़ते दौड़ में आम आदमी का जीवन कब तक सुरक्षित है या फिर यूं कहे कि तभी तक सुरक्षित है जब तक वह एक बार इन अस्पतालों में किसी बीमारी के चलते पहुंच नहीं जाता है।

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