आशु भटनागर । लगभग हर पूर्णमासी पर होने वाली “श्री सत्यनारायण भगवान की कथा” में एक प्रसंग आता है जब राजा के सिपाही राजा के खजाने में हुई चोरी के चोरों को ना पकड़ पाने पर उनके देश में व्यापार के लिए आए साधु नामक वैश्य और उसके दामाद को व्यापार के लिए लाए सोने और उसके आभूषण के साथ बंद कर देते हैं । बाद में श्री सत्यनारायण भगवान के राजा के स्वप्न में आकर सच बताने के बाद सिपाही अपनी गलती स्वीकारते हैं और राजा द्वारा उनको क्षमा मांगते हुए रिहा किया जाता है । कथा आगे बढ़ जाती है किंतु कथा में सिपाहियों द्वारा चोरों को ना पकड़ पाने की स्थिति और राजा से मिलने वाले दंड के भय से निर्दोष ससुर जामाता को मिले अनावश्यक दंड और राजा के सिपाहियों की बात छूट जाती है ।
तब से लेकर आज तक भारत में पुलिस और पुलिसिया तंत्र अक्सर अपने ऊपर किसी भी केस में बढ़ते दबाव को हल करने के लिए किसी निर्दोष को कब गिरफ्तार करके उसे अपराधी बना पेश कर देते हैं, प्रतिदिन होने वाली कई घटनाओं में हम इनकी पुनरावृति देख सकते हैं ।
हाल ही में मुंबई में प्रख्यात अभिनेता सैफ अली खान के घर में घुसकर उन पर हमला करने वाले को पकड़ने की जल्दबाजी में मुंबई पुलिस द्वारा एक व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने के बाद यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो गया है । दरअसल मुंबई पुलिस ने आकाश कनौजिया नाम के एक लड़के को तब गिरफ्तार कर लिया जब वो अपनी होने वाली मंगेतर से मिलने के लिए जा रहा था । किसी भी तरीके से अपराधी को पकड़ कर अपने ऊपर से हाई प्रोफाइल सेलिब्रिटी के मामले के दबाव को खत्म करने के में लगी मुंबई पुलिस ने यह भी नहीं सोचा कि जिस लड़के को उसने गिरफ्तार किया उसकी मुछे थी जबकि जो आरोपी उनको सीसीटीवी में मिला था उसकी मुछे तक नहीं थी । यही नहीं बिना तयारी के ही मुंबई पुलिस ने दावा कर दिया कि यही वह लड़का है जिसने सैफ अली खान पर हमला किया बल्कि उस लड़के के फोटोग्राफ्स मीडिया और सोशल मीडिया में वायरल कर दिए I जब तक इस लड़के की पहचान और आरोपी के बीच अंतर को लोगों ने पॉइंट आउट किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।
बकौल आकाश कन्नौजिया इस पुरे घटनाक्रम से उसकी होने वाली मंगेतर ने शादी से मना कर दिया । मीडिया में सैफ अली खान पर हमले के समाचार में वांछित होने के मुंबई पुलिस के दावे के बाद उसकी नौकरी से भी निकाल दिया गया गया । जब तक मुंबई पुलिस ने किसी अन्य बांग्लादेशी मुस्लिम व्यक्ति को असली अपराधी बताया तब तक बहुत देर हो चुकी थी और एक बार फिर से पुलिस के छोटे अधिकारियों के अपनी गर्दन बचाने और वाहवाही लूटने की बरसों पुरानी आदत में एक व्यक्ति की जिंदगी को मजाक बना दिया ।
पुलिस किस हद तक बॉयस हो सकती है यह एक राजनेता के अहं की तुष्टि के लिए हमने मुंबई में ही रिपब्लिक भारत के संपादक अर्णब गोस्वामी के केस में भी देखा था जिन्हें बाद में अदालत ने रिहा किया और उसके लिए भी मुंबई पुलिस को बहुत फटकार लगाई । ऐसा नहीं है कि ऐसे मामले सिर्फ मुंबई पुलिस के ही देखे जाते हैं देश भर की पुलिस इस तरीके की प्रैक्टिस में लिप्त पाई जाती है और अक्सर इन बातों पर पुलिस में मौजूद व्यक्ति पर एक जांच बैठा कर रफा दफा कर दिया जाता है ।
किसान आन्दोलन में गिरफ्तार हुए नोएडा के ही एक मजदूर नेता की माने उन्हें बीते दिनों आधी रात को अश्लील हरकतें करने के आरोप में नोएडा पुलिस ने गिरफ्तार दिखाया और उनकी लगभग 15 दिन तक जमानत नहीं होने दी । मजदूर नेता का दावा है कि उनकी जमानत 151 आईपीसी में की गई जबकि मीडिया में दिए गए पत्र के अनुसार उन्हें अश्लील हरकतें करता हुआ पकड़ा दिखाया गया था । हालांकि पुलिस का बयान इसपर उपलब्ध नहीं हो सका ।
ग्रेटर नोएडा में नरेश नौटियाल नामक एक व्यक्ति ने एक चौकी इंचार्ज पर सोसाइटी में दबंगो द्वारा खुद को पीटे जाने के बाद पीटने वाले लोगों के द्वारा उसके ही विरुद्ध मुकदमा लिखवा देने की सुनवाई कहीं न होने पर 2024 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय खड़े होकर अपनी बात को घर-घर पहुंचने का काम किया। यद्यपि उनके अपने केस का क्या हुआ यह अज्ञात है फिलहाल वो अब राजनीति में व्यस्त है ।
ऐसे में देश भर की पुलिसिया तंत्र की घटनाओं को अगर जोड़ना शुरू करें तो पुलिस के ऐसे केस लिखने में बड़े महाकाव्य लिखे जा सकते हैं । पैसे लेकर या किसी अन्य परिस्थिति में निर्दोष को प्रताड़ित करने से लेकर किसी माफिया के संग या उसके समानांतर काम करने से लेकर अवैध उगाही जैसे तमाम और आरोप भी पुलिस पर लगते रहते हैं
उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह इस पूरे प्रकरण को लेकर एक पोडकास्ट में कहते हैं कि यह पहली घटना नहीं है जिसमें पुलिस ने ऐसा किया है मुंबई पुलिस की तरह उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक केस में हाई प्रोफाइल एक अंगूठी के चोरी हो जाने पर स्वयं व अंगूठी बनवा कर दे दी थी बाद में असली अंगूठी के मिलने पर पुलिस की किरकिरी हुई । हालांकि वो भी स्वीकार करते हैं कि पुलिस में सभी लोग ऐसे नहीं है एक छोटा सा हिस्सा ही ऐसा है किंतु उसने पूरे सिस्टम को भयभीत कर रखा है ।
इसमें बड़ा प्रश्न यह है कि जब प्राचीन काल से पुलिस के ऐसे व्यवहारों की एक लंबी सूची स्वयं पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी भी स्वीकार करते हैं तब यह प्रश्न आज तक क्यों नहीं उठ रहा है कि इन बातों को लेकर भारत में पुलिस रिफॉर्म्स पर चर्चाएं शुरू की जाए बल्कि इस चर्चाओं से अलग इसको सुधारने की भी चर्चाएं की जाए । पुलिसिया तंत्र के साथ-साथ पुलिस की नौकरी में अनियमित लगातार लंबी सेवाओं और उसके कारण होने वाले विकारों और पुलिस में काम करने वाले लोगों के परिवारों पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव पर भी चर्चाएं आवश्यक है ।
सामाजिक विश्लेषकों की माने तो अन्य कारणों के अलावा प्राचीन काल सहित पुलिस को लेकर आम नागरिक के मन में बस भय भी पुलिस को ऐसे कार्य करने पर प्रोत्साहित करता है। ब्रिटिश काल में सामंतवादी व्यवस्था के आने पर बनी आईपीसी के दौरान ऐसे अत्याचारों ने सीमाएं लांघ दी। आजादी के बाद यह सोचा ओर समझा गया कि अब यह हमारा देश है, हमारा लोकतंत्र है और हमारी पुलिस है।
किंतु क्या वाकई आजादी के स्वतंत्रता के 76 वर्ष बाद भी हम पुलिस के व्यवहार और कार्यशैली में कोई परिवर्तन ला पाए हैं या फिर पुलिस हमारे राजनेताओं और प्रशासनिक हमले के लिए आज भी एक टूल की तरह कार्य करती है जिसके जरिए अंततः आम आदमी की प्रताड़ना की घटनाएं कहीं छिप जाती है ।
प्रश्न फिर वही आता है कि इन घटनाओं पर आखिर कब तक चुप रहा जाएगा और इन पर कौन बोलेगा ? क्योंकि इस देश में राजनेताओं के भ्रष्टों या ऐसे राजनेता या पुलिसिया तंत्र के खिलाफ आवाज उठाने की प्रतिक्रिया जब पत्रकार के तौर पर अर्णब गोस्वामी जैसी दिखे तो आम आदमी की क्या स्थिति होगी ।
ऐसे में बड़ा प्रश्न यही है कि क्या इस देश में की संसद के ऊपरी सदन (राज्यसभा) ओर लोकसभा में बैठे मौजूद बड़े बुद्धिजीवी राजनेता इस बात के लिए कभी अपनी आवाज उठा सकेंगे कि भारत में पुलिस और उसके तंत्र को लेकर अब रिफॉर्म बेहद आवश्यक है या फिर जिस आवाज उठाने की अपेक्षा हम कर रहे हैं, उसकी जगह वह पुलिस को हमेशा की तरह अपने अपने हितों के लिए साधते रहेंगे ।