मंगलवार का दिन दिल्ली के कई वाहन मालिकों के लिए किसी बुरे सपने जैसा था, जब परिवहन विभाग के प्रवर्तन दस्ते ने सड़कों पर उतरकर एक दशक पुरानी डीज़ल और 15 साल पुरानी पेट्रोल गाड़ियों पर अपनी सबसे बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया। एक ही दिन में कुल 80 गाड़ियाँ ज़ब्त कर ली गईं, जिनमें से 67 दोपहिया वाहन थे। यह आंकड़ा सिर्फ एक संख्या नहीं, बल्कि उन दर्जनों परिवारों की कहानी कहता है जिनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी अब दांव पर लग गई है।
दिल्ली में प्रदूषण के खिलाफ चल रही लड़ाई ने अब एक नया और बेहद सख्त मोड़ ले लिया है। नियमों के तहत, इन ज़ब्त की गई गाड़ियों के मालिकों को नोटिस थमा दिए गए हैं। उनके पास अब दो ही रास्ते हैं: या तो वे अपनी गाड़ी के लिए एनओसी (अनापत्ति प्रमाण पत्र) लेकर उसे दिल्ली की सीमाओं से बाहर किसी दूसरे राज्य में बेच दें, या फिर उसे सरकार द्वारा अधिकृत स्क्रैप डीलर के पास कबाड़ में बदलवा दें।
लेकिन इस कार्रवाई ने एक बड़ी और ज़रूरी बहस छेड़ दी है। सवाल यह उठता है कि क्या प्रदूषण के खिलाफ इस जंग का सारा बोझ आम मध्यमवर्गीय और गरीब नागरिक ही उठाएगा? ज़ब्त किए गए 80 वाहनों में 67 का दोपहिया होना इस बात का प्रतीक है कि इस नीति की सबसे भारी मार उन लोगों पर पड़ रही है, जिनके लिए उनकी पुरानी बाइक या स्कूटर सिर्फ एक वाहन नहीं, बल्कि उनकी रोज़ी-रोटी का ज़रिया है। यह किसी डिलीवरी बॉय का रोज़गार है, किसी छोटे कर्मचारी के दफ्तर पहुँचने का साधन है, और किसी परिवार के लिए एकमात्र सहारा है।
बेशक, दिल्ली की ज़हरीली हवा किसी से छिपी नहीं है और सरकार का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन है। लक्ष्य नेक है – नागरिकों को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा देना। लेकिन नेक लक्ष्य को पाने का रास्ता क्या इतना कठोर और एकतरफा होना चाहिए? क्या एक अच्छी तरह से मेंटेन की गई 15 साल पुरानी बाइक, जिसका PUC सर्टिफिकेट भी वैध हो, वाकई उन हज़ारों नई गाड़ियों से ज़्यादा प्रदूषण फैला रही है जो रोज़ाना सड़कों पर उतरती हैं?
प्रशासन को यह सोचने की ज़रूरत है कि इस तरह की ‘ज़ब्ती’ मुहिम चलाने से पहले क्या नागरिकों को पर्याप्त विकल्प या सहायता दी गई? पुरानी गाड़ी को स्क्रैप करके नई इलेक्ट्रिक गाड़ी खरीदने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी क्या इतनी आकर्षक और सुलभ है कि एक आम आदमी आसानी से यह बदलाव कर सके?
फिलहाल, यह कार्रवाई दिल्ली के लाखों पुराने वाहन मालिकों के दिलों में एक डर पैदा कर गई है। एक तरफ़ स्वच्छ हवा की ज़रूरत है, तो दूसरी तरफ़ आम नागरिक की आर्थिक मजबूरी। सरकार को इस संतुलन को साधना होगा, वरना प्रदूषण के खिलाफ यह लड़ाई आम आदमी के खिलाफ एक जंग बनकर रह जाएगी।