अमृता मौर्य । करवाचौथ को लेकर सोशल मीडिया में न जाने कितनी उलाहनाएँ, परिहास और उपहास लिखकर डाले गए। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे सोशल मीडिया की पहुँच भावनाओं पर प्रहार करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल हो रही है। यह जरूरी तो नहीं कि रिश्तों का जो उत्सव आप नहीं मनाते उसपर दूसरों को आघात करनेवाली टिप्पणियाँ की जाएँ।
क्या करवाचौथ मनाने के पीछे कोई दुर्भावना है? क्या यह किसी को क्षति पहुँचानेवाली परम्परा है? क्या इससे सामाजिक या पारिवारिक ताना-बाना टूटता है? इसके बावजूद इसे अनुपयोगी और रूढ़ि मान्यता साबित करने के तर्कों की बाढ़ आ गई।
कुछ तर्क ऐसे मिले – ‘मेरी माँ ने नहीं मनाया, पिताजी आजतक स्वस्थ हैं। मैंने भी कभी नहीं मनाया।’ कुछ के तर्क थे कि विदेशों में जो नहीं मनाते क्या उनके पति मर जाते हैं। सुनकर बहुत विचित्र लगता है। वैचारिकता खत्म हो गई-सी लगती है। या जानबूझकर ऐसी अतार्किक सोच को उकेरा जा रहा है। करवाचौथ विदेश तो क्या, पूरे भारत में भी नहीं होता। दिल्ली, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आसपास के कुछ क्षेत्रों में होता है। यह वहाँ का पारंपरिक व्रत है। शेष भारत में नहीं मनाया जाता, पर वे पति भी स्वस्थ और आयुष्मान रहते हैं। इस देश में अनेक त्योहार, उत्सव, पर्व, पूजा, परंपराएं, विधि-विधान, रस्म, मान्यता और उपासना ऐसे हैं जो छोटे परास में होते हैं। उनकी व्यापकता पूर्णभौमिक नहीं है। और इस देश में रहनेवालों के लिए यह जानकारी भी अजूबा नहीं है। इसके बावजूद कटाक्ष! सबसे ज्यादा, सबसे भद्दा कटाक्ष पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूती को स्मृत करनेवाली परंपरा पर ही! ऐसा क्यों?
दाम्पत्य के भावनात्मक बंधन को करवाचौथ के बहाने तार-तार क्यों किया जा रहा है? मुझे आश्चर्य होता है कि मन को बांधने वाली सोच पर प्रहार क्यों होता है। क्यों नहीं विकृतियों पर प्रहार होता? व्रत-त्योहार से जुड़ी कुप्रथाओं, कपोल-कल्पित कहानियों, आडम्बर, दिखावे और बाजार के हावी होते प्रभावों पर आघात क्यों नहीं किया जाता? जिनमें जागृति आ चुकी है वे जागृत होकर किधर चले गए? वे कुरीतियों को रोकने के बजाय पाश्चात्य सांस्कृतिक विचारों का आवरण क्यों ओढ़ रहे हैं? वास्तविकता यह है कि दुनिया के सभी धर्मों और सभी संस्कृतियों में अपनी-अपनी सोच के हिसाब से मान्यताएं हैं और वे एक-दूसरे से अलग हैं। आप अपनी मान्यताओं पर प्रहार कर दूसरों की तरफ खड़े हो जाते हैं। इसमें क्या समझदारी है? अपने अधर्म और कुप्रथा के रोड़ों को रास्ते से हटाने के बजाय ऐसी दिशा में चले जा रहे हैं जहाँ कंटीली झाड़ियां हैं, और उन्हें साफ़ करने का तरीका भी आपके पास नहीं है। उन काँटों में उलझकर जीवन का कौन-सा लक्ष्य भेद रहे हैं?
विरोध इस बात का क्यों नहीं करते कि बहू के पहले करवाचौथ में करवा उसके मायके से नहीं आएगा। अगर आएगा भी तो पीतल का या ताम्बे का नहीं, बल्कि मिट्टी का। लालच का संभरण नहीं, संवरण चाहिए- इसपर कभी विचार किया है? परिवार में महिलाओं के बीच आभूषणों की प्रतियोगिता देखकर कभी मन में आया कि उत्सव को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति से मुक्त किया जाये? रिश्ते-नाते, गांव-पड़ोस में 15-16 साल की लड़कियों का विवाह होते देख कभी लगा कि इसका खुला बहिष्कार किया जाये? लिवइन रिलेशन में रहते हुए क्या कोई आत्मग्लानि का भाव मन में पनपता है? अविवाहित गर्भपात किसी अधर्म की ओर इशारा करता है कि नहीं? विवाहित पुरुष बाहर रिश्ते निभाते हुए और विवाहित महिलाएं ऐसे ही छद्म रिश्तों में बंधते हुए कभी अपराध बोध महसूस करती हैं? हिंसक रिश्तों वाला दाम्पत्य और छोटी-छोटी बातों पर अलग होने वाला दाम्पत्य घर में बच्चों के संस्कार और मानसिक दुष्प्रभाव पर कभी सोचता है?
दरअसल जहाँ सोचना है वहाँ हमारी सोच कुन्द हो जाती है। जिन चीज़ों को लेकर चलना है उन्हें हम सबसे पहले छोड़ते हैं। अगर कुछ छोड़ना ही है तो रिश्तों में धोखा छोड़ें। दिखावा और खोखलापन छोड़ें। त्योहार की कथाओं से कपोल-कल्पित बातें छोड़ें! मृतक दोबारा कब ज़िंदा होता है? ऐसी झूठी कहानियों का प्रचलन छोड़ें।
करवाचौथ क्यों छोड़ें? पारिवारिक और सामाजिक जीवन में उत्सवी माहौल को बना कर रखें। किसकी आयु लम्बी होती है किसकी छोटी – ये किसके हाथ में है? मगर लम्बी आयु की कामना ज़रूर मन में रखें। सात जन्म का पता तो क्या, इस जन्म का भी भरोसा नहीं। फिर भी जन्म-जन्मान्तर की कसमें मन भर खाएं। पति और चाँद दोनों छत पर साथ दिखें इससे सुन्दर दृश्य क्या होगा! परिवार में बुजुर्गों का आशीर्वाद और बच्चों का उल्लास, साथ ही पकवानों का स्वाद – पारिवारिक ज़िन्दगी में यही तो रिश्तों की मिठास है। हाँ, अगर शिकायत यह है कि पत्नी ही भूखी क्यों रहे तो पति साथ में भूखे रह लें। आखिर, और दूसरे उपवास भी वो करते हैं।
वे कैसे लोग हैं जिन्हें पति-पत्नी और परिवार के उत्सवी परिवेश को शाब्दिक तौर पर छिन्न-भिन्न करके आत्मिक सुख मिलता है? क्या यह मनोविकृति की श्रेणी में नहीं आता? एक सवाल तो मन में उठता है- अच्छी सकारात्मक सोच के साथ सामाजिक-पारिवारिक उत्सव मानना किस श्रेणी का अपराध है जिसे इतने व्यापक तौर पर कोसा जाता है?
मकर संक्रान्ति और छठ- ऋतु आधारित दो पर्व बहुत जाने-पहचाने हैं। मकर संक्रान्ति पूरे देश में अलग-अलग नामों और विधियों से मनाते हैं लेकिन सभी पर्व नयी फसल के आने की ख़ुशी से जुड़े हैं। छठ-पर्व सूर्य की उपासना का पर्व है। यह मुख्यतः मिथिलांचल और पूर्वी राज्यों में मनाया जाता है। इसमें डूबते और उगते दोनों सूर्यों को उपासना होती है। स्त्री-पुरुष हल्दी, गन्ना, गागर नींबू, मटर जैसी फसलों को लेकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। उपहास इनका भी कम नहीं उड़ाया जाता।
आदिवासी जीवन प्रकृति के और भी करीब है। उनके जन्म-मरण, उल्लास, प्रतीक, पहनावे और जीवनशैली सब में प्रकृति और जीव शामिल हैं। उत्तर-पूर्व में जब वर्षा का आगमन होता है तो कुछ जगह मेंढक-मेंढकी का सांकेतिक विवाह कराने की परंपरा है। 21 वीं सदी की विकासवादी सोच सोशल मीडिया पर इस परंपरा को मूढ़ता की पराकाष्ठा का नाम देती है। उनकी, सहज देसी जीवन से अनभिज्ञता इसी रूप में बाहर आती है। कृषि और वनोपज पर आधारित लोकजीवन, वर्षा में उगे नवांकुरों में अपना भविष्य प्रस्फुटित होते देखते आया है। मेंढक और वर्षा अन्योन्याश्रित हैं। और मेंढक-मेंढकी का सांकेतिक विवाह वन्यांचलों में उसी के प्रदर्शन का एक उत्सवी स्वरुप है। अगर आपको इसे मनाने का कोई औचित्य नहीं नज़र आये तो मत मनाइये। मत शामिल होइए। मगर इस वजह से उसे धिक्कारने का अधिकार आपको नहीं मिल जाता। समुद्र-तटीय इलाकों में उत्सव का कुछ और रूप है। मछुआरे-मछुआरिन अपने तरीके का नृत्य-उत्सव मानते हैं। उनका भी हास्य बनाइये।
कहाँ तक उपहास उड़ाएंगे? कहीं तो रुकना पड़ेगा और सोचना पड़ेगा कि निरर्थक आलोचनाओं से क्या हासिल हो रहा है। यह कोई रचनात्मक आलोचना है जो समाज को उन्नयन की दिशा दे रही है? या फिर मन की कुंठा है जो ज़मीन से न जुड़ पाने पर मस्तिष्क में जड़ें जमा रही है?
लेखिका पत्रकारिता और फिल्म निर्माण से जुड़ी है, लेख उनके सोशल मीडिया से लिया गया है, विचारो से एनसीआर खबर का सहमत या असहमत होना अनिवार्य नहीं है