राजेश बैरागी । क्या किसी मंदिर के गर्भगृह से बहकर आने वाले साफ सफाई के पानी को चरणामृत मानकर पीना चाहिए? क्या यमुना के गंदे विषैले जल को परंपरा के पालन के लिए व्रत का खाना बनाने में उपयोग करना चाहिए? बीते दिन नहाय खाय के साथ शुरू हुए छठ पर्व पर दिल्ली में महिलाओं को यमुना का जल लेकर जाते देखा गया।
परंपरा है कि व्रती जिस नदी तालाब के किनारे इस पर्व को मनाते हैं उसी के जल से खाना तैयार किया जाता है। यह परंपरा तब से है जब जल के स्रोत नदी तालाब थे और उनकी साफ सफाई तथा पवित्रता असंदिग्ध थी।आज पेयजल के अन्य स्रोत अस्तित्व में आ चुके हैं जबकि नदी नालों का जल पीने या नहाने योग्य भी नहीं है।
क्या परंपराओं का निर्वाह करने के लिए बेहद गंदे और जहरीले यमुना के जल से खाना बनाना चाहिए? क्या यह अंधभक्ति की पराकाष्ठा नहीं है? वृंदावन स्थित श्री बांकेबिहारीजी के मंदिर के पिछवाड़े गर्भगृह से बहकर आने वाले जल को चरणामृत मानकर शरीर पर छिड़कना तथा पीना क्या अंधभक्ति का एक और उदाहरण नहीं है? यह जल गर्भगृह की साफ-सफाई तथा भोजन के बर्तनों को धोने से उत्पन्न होता है। यह जल मंदिर के पिछवाड़े बने दो हाथियों के मुंह से निकलता है जिसे अंधभक्त हाथों हाथ लपक लेते हैं। इसका वीडियो वायरल होने पर की गई छानबीन में स्पष्ट हुआ कि यह चरणामृत नहीं है। मंदिर के सेवादारों ने इस जल को चरणामृत होने से साफ इंकार किया।
परंतु जैसे यमुना के गंदे विषैले जल से छठ पर्व का खाना बनाना अंधभक्ति का विश्वास है वैसे ही साफ सफाई के बहकर आ रहे पानी को चरणामृत मानकर पीना भी अंधभक्ति का ही प्रमाण है। कोई भी धर्म और संस्कृति मान्यताओं और परंपराओं के कंधों पर ही सदियों का सफर तय नहीं करती है। उसकी निरंतरता के लिए उसका तार्किक, व्यवहारिक और समयकाल के अनुसार शुद्ध होना आवश्यक होता है। हालांकि अंधभक्ति के शिकार जनमानस को समझाने का प्रयास न केवल असफल हो सकता है बल्कि उल्टा भी पड़ सकता है।